आदिम इतिहास - एक सफ़र

आदिम इतिहास की खोई हुई पगडंडियां

इतिहास साक्षी है कि सुदूर अतीत में संसार के हर कोने में मौजूद वे आदिम समाज जो लिखित रूप में अपने होने का साक्ष्य इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं करा पाए, उन का अस्तित्व इतिहास की दहलीज पर बिना अपनी उपस्थिति का कोई निशान या सुराग छोड़े बड़ी ही खामोशी से आहिस्ता आहिस्ता काल का ग्रास बन गया. और इस तरह कालांतर में काल के कगार से धीरे धीरे विस्मृति के अतल गहराईंयो की तरफ खिसकते हुए बढ़ते हुए बिना किसी सामूहिक चेतना का हिस्सा बने वे अंतत उन्हीं गहराईंयो में सदा के लिए विलुप्त हो गए. और बदले में अपने पीछे कई अनसुलझे रहस्यों का भंडार छोड़ गए जो आज भी अपने अन्वेषण और रहस्योदधाटन की बाट जोह रहा है.

गुफा मानव से लेकर आधुनिक सभ्यता तक के सफ़र में ऐसे कितने ही समाजों का कोई जिक्र या जानकारी नहीं मिलती जिनकी अलिखित परपरा रही है. उनके सामाजिक पक्षों जैसे उनकी जीवन पद्धति संस्कृति जीवन शैली रीति रिवाजों और परंपराओं के बारे में उपलब्ध जानकारी का अभाव हम लोगों के मनों में उन्हें जानने समझने की जिज्ञासा कौतुहल या उत्सुकता नहीं जगा पाता. यह सब कुछ शायद उनके लिए समय की बर्बादी के अलावा कुछ भी नहीं लगता है नितान्त व्यर्थ और समय का अपव्यय मात्र.

पर अगर हम भविष्य को अच्छी तरह से जानना समझना चाहते हैं तो हमें अपने जड़ों को पहचानना होगा क्योंकि भविष्य की दशा और दिशा हमारे इतिहास में अंतर्निहित है और अपने इतिहास को जाने बगैर महज आंखे बंद करके टटोल टटोल कर भविष्य की ओर कदम बढ़ाते रहने का फ़ैसला महज बेवकूफ़ी के अलावा भला और क्या समझा जाए. क्योंकि कई बार जल्दबाजी या हड़बड़ी में लिया गया फ़ैसला हमें आगे बढ़ने में मदद सहायता करने की बजाय हमें बेहद पीछे की ओर भी ढकेल सकता है और अब तक के तमाम प्रगति को खोखला और व्यर्थ साबित कर सकता है.

आदिम इतिहास के उबड़खाबड़ दुर्गम बीहड़ वनों में न जाने कितनी छोटी बड़ी पगडंडियां हैं जिनपर राजमार्गों पर चलने का आदी आधुनिक इतिहास उन्हें दुर्गम बीहड़ मानकर घुसने से कतराता है और उनके बारे में मनगढ़न्त किंवंदितियां गढ़ कर उन्हें किसी संपूर्ण सत्य की तरह दुनिया के समक्ष शब्दों का ऐसा ताना बाना रचकर इतने विश्वासपूर्ण और निर्भीक ढंग से प्रस्तुत करता है कि लोगों को उस पर विश्वास करने के अलावा कोई चारा या विकल्प नहीं बचता.

पर अगर कोई उन आदिम इतिहास के उबड़खाबड़ दुर्गम बीहड़ वनो में वास्तविक्ता की तलाश में निकले तो अवश्य ही जान पाएगा कि उन अंजाने बीहड़ो में न जाने कितनी छोटी बड़ी सुरंगों से पटी पगडंडियां है जिनके मुहाने दहानों का झुटपुटा संसार उन आदिम समाजों की अस्फुट और अस्पष्ट फुसफुसाहटों से हर पल गुंजायमान रहता है. उनका बेतुका अटपटा अस्पष्ट शोर दूसरों के लिए एक अबूझ पहेली है बस. जहां नदी की कल कल करती जलधारा सा गतिमान वेगमय और प्रवाहपूर्ण जीवन है. अभाव और असंभव परिस्थितियों को चट्टान से भी अधिक मजबूत और दृढ़ इरादों वाले वहां के निवासी चुटकियों में मिल कर हंसते गाते मसल देने और सुलझाने की ताकत रखने वाले वे लोग प्रकृति के रंगो से अपने अपने जीवनों को रंगमय और चटकीला बनाने में जुटे रहते थे जो कि उन के लिए अपवाद नहीं बल्कि सहज प्रवृति मात्र ही थी.

प्रकृति की गोद मे बसने वाले आदिम समाजों का जीवन विकसित समाजों के लीकबद्ध जीवन पद्धति की अपेक्षा कहीं अधिक सहज सरल एव संगीतमय होता है जिसके अनगढ़ सुरों का बीहड़ी सौंदर्य उत्सुकता के भाव तो शायद नहीं जगा पाता पर किसी जादुई दिवास्वप्न सा मनभित्तियों पर एक अस्पष्ट और धुंधला सा रेखाचित्र उकेर पाने में अनायास ही सफलता प्राप्त कर लेता है.

वेगवान झरनों और हहराती नदियों से प्रस्फुटित होने वाला कोलाहल पूर्ण मंत्रमुग्ध करने वाला जादुई संगीत वहां के निवासियों को अपने प्रवाहमान और निरंतर गतिमान जीवन से रास्ते में आने वाली हर रूकावटों और कठिनाईयों से पराजित न होते हुए हर पल गतिमान रहने की प्रेरणा भी देता है. और किसी ने सच ही कहा है कि यदि उन झरनों और नदियों के मार्ग में आने वाली तमाम बाधाओं जैसे कंकड़ पत्थर और चट्टानों को ह्टा लिया जाए तो उनका मंत्रमुग्ध करने वाला जादुई संगीत का उनके अंतर्तल की गहराईयों से प्रस्फुटित होना एक झटके से खत्म हो जाएगा या चुक जाएगा और उनके गीत हमेशा के लिए खो जाएंगे. कमोबेश यही सब कुछ हमारे जीवनों को भी हर परिस्थिति में उल्लासमय और संगीतमय बने रहने का संदेश देता है.

जीवनदायिनी प्रकृति इन आदिम समाजों की पूज्या भी है और आत्मीया भी. प्रकृति अपने इन भोले मासूम निष्पाप और निश्छ्ल बच्चो के मध्य कठिन और विपरीत परिस्थितियों में भी हर पल को उल्लासमय और संगीतमय ढंग से जीने की प्रेरणास्रोत बनकर उभरती है. प्रकृति उनके अस्तित्व का एक अभिन्न हिस्सा है और उनके बीच का सामजंस्यपूर्ण संबंध एक सांझी विरासत. उन बीहड़ वनों से आती शीतल सुवासित बयार कांच और कंक्रीट के जगलों में रहने वालो के मनों में किसी कोमल सुखद अहसास को जगाती तो है जो वहां सैलानी बनकर आते है पर उनकी चेतना या स्मृतियों में लंबे समय तक अपनी कोई पैठ नहीं बना पाती.

इतिहास के जगमगाते शीशमहल के किसी कोने के सूने अंधेरे गलियारों से उतरती सीढ़ियों के नीचे बने तलघरों और तहखानों के भूलभुलैंया भरे जाल में कैद चेतना के कगार से नीचे धकियाई कहानियां विस्मृतियों के गर्त में गिरकर विलीन होने को अभिशप्त है. पर कभी कभार वे भी बाहर की ताजी हवा को महसूसने के लिए मचल उठते हैं पर बाहर निकलने के लिए मदद की गुहार उन्हीं तक अन्सुनी वापस पहुंचती है.

लोकप्रिय इतिहास किसी टीवी सीरियल की तरह है. तो वैकल्पिक या लुप्त इतिहास की तुलना उन सीरियलों के अंतराल और आरंभ और अंत में आने वाले विज्ञापनों से की जा सकती है. जिन्हें हर कोई अंतराल के वक्त चैनल सर्फिंग करते हुए अपने रिमोटों की मदद से बारंबार बदल बदल कर, अपने चटखारेदार और मसालेदार सीरियलों के वापस लौटने का बेसब्री से इंतजार करता है, क्योंकि विज्ञापन सरीखे सभी सूचनाएं उनके लिए कोई मायने नहीं रखते.

काल की सतह पर बिखरे दृष्टिगत और दृश्यमान संकेतों और सूत्रों को एक सार्थक माला में पिरोना और सतह के नीचे गहराई में पैठकर अनुमान और अंतरज्ञान के बूते या मदद से लुप्त संकेतों और सूत्रों के अर्थ ढूंढना यही अंतर है, लोकप्रिय इतिहास और वैकल्पिक या लुप्त इतिहास में. लोक मानस भी उन्हीं तथ्यों और सूत्रों को सहजता से स्वीकारता है, जिसे देख छूकर समझा जाना जा सके. विस्मृतियों के गर्त मे उतरकर लुप्त सूत्रों या अदृश्य संकेतों की पुनर्रचना या उन्हें पुनर्जीवित करने के अथक प्रयास या कयावद हम में से कईयों को व्यर्थ की मूर्खता लग सकती है.

पर जब कालखंड के सुव्यवसित सुसज्जित विन्यास पर निगाह डालते है, तो अनायास ही हमारी नजर उस साज सज्जा या ऋंगार से भटककर उसके धूल धूसरित अनगिन छेदों से भरे आंचल पर पड़ती है, जिसे वो भरसक अपने पीछे छुपाए हुए है, पर परिवर्तन किसी बवंडर के झौंके सा उसे बार बार हमारी आंखों के सामने उड़ा ले आता है, जिसे अनदेखा किया नहीं जा सकता है. पूरी सजधज के नीचे से झांकता टाट का पैबंध किस तरह स्वीकार्य हो सकता है भला?

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-