आदिम गूंज १४

अंधेरी दुनिया

हमारे हिस्से का उजाला
न जाने कहां खो गया
कि आज भी मयस्सर नहीं
हमें कतरा भर भी आसमां
जिंदगी जूठन और उतरन
के सिवा कुछ भी नहीं
चेहरे पर अपमान और लांछन
की चादर लपेट
भटकते हैं रोज ही
जिंदगी की गलियों में
आवारा कुत्तों और
भिखारियों की तरह
...

औरो के दुख है बहुत बड़े
और हमारे दुख हैं बौने
तभी तो हथिया ली है
सबने ये पूरी दुनिया
जबकि हम जैसों को
नहीं मयस्सर जरा सा एक कोना
..

दुख और गरीबी
जिनके लिए हैं
महज लफ़्फ़ाजी या बयानबाजी
..


सो अपने अनझरे आंसू समेटे
हंसते गाते है सबके लिए
खुजैले कुत्ते सा
बार बार दुरदुराए जाने के बावजूद
फ़िर फ़िर लौटते हैं
नारकीय अंधकूपों में
ताकि अंधी सुरंग से ढके दिन रात में
कर सके नन्हा सा छेद
कि मिल सके
जरा सी हवा
जरा सा आसमान
हमारे बच्चों के बच्चों को भी
...
...

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज १३

परिवर्तन का काफ़िला

२.

कभी गुजर जाता है
बेहद तीव्र गति से
सब कुछ को रौंदता हुआ
तो कभी गुजर जाता है
बड़ी ही खामोशी से
कि उसका अहसास भी
हो पाता है
अरसा बीतने पर
उसके आने की उम्मीद में
लोग रहते है
पलकें बिछाए
दुआओं की चादर फ़ैलाए
तो कुछ रहते हैं तैयार
उसका रास्ता रोकने
डंडा गाली और गोली का
बदोबस्त किए
...
...

३.


जब उम्मीदें तोड़ देती है दम
बीच राह में...
एक नया सफ़र
फ़िर आरंभ होता है
उस बिंदु से
उससे पार जाने के
जद्दोजहद और कशमकश के मध्य
सब कुछ चलता है से हटकर
सब कुछ को बदलना है
के मुकाम तक का सफ़र
अंजान और अकेला ही सही
पर धूल का गुबार के
छंटने के बाद
भीड़ के तितर बितर होने के बाद
बचे खुचे लोगों का हूजूम
बांधेगा ढे्र सारे पुल
उन खाईयों और गर्तों के
मुहानों पर
जिनके मायाजाल में फ़ंसकर
उलझ/ बिखर जाता है सफ़र और
लोगों का उत्साह और जूनून
...
...


-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज १२

१.

लुकस टेटे की स्मृति में


हम जैसों का तो
जन्म ही हुआ है
यूं ही मर खप जाने को
गुमनामी में जीने
और गुमनामी में
मर जाने को
...

हमारे परिवार/कुनबे
या समाज का विलाप
और दुख
टसुवे बहाती आंखों का
दोष मात्र
जिसे झिड़का
अनदेखा किया जा सकता है
हर बार
...

दूसरे के आंसू का
एक एक कतरा भी
पिघला सकता है
देश भर का दिल
पर
हमारे आंसुओं का
सैलाब भी
कम पड़ जाता है
असर दिखा पाने में
बुरी तरह से नाकामयाब
...

आंसू आंसू के फ़र्क
के भेद को बूझें कि अपने पहाड़ से
जीवन के दुख से जूझें
हमारे लोग
पर फ़िर भी
रहते हैं वे
शांत अविचलित और अडिग
किसी पहाड़ सा
अपनी उजड़ी बिखरती
जिंदगियों मे भी
मगन और मस्त
सब कुछ को भुलाकर
...

सोचते थे कि
दुख तो होता है
सबका एक जैसा
क्या जानते थे कि
बौने और कीड़े मकौड़े
समझे जाते हैं
हम जैसे लोग
गुलीवरों के देश में
जिनका कुचला
मसले जाना
रोजमर्रा की है बात
नहीं मचती कोई
चीख पुकार
या हलचल
किसी भी बा्र
ऐसी छोटी मोटी
बातों पर
हमारे दर्द के गुबार से
लदा कारवां
गुजरता है रोज ही
दुनिया के बाजार से
किसी मूक परछाई के
अंतहीन सिलसिले सा
सदियों से
अनदेखा अनसुना और अकेला


...
...


२.

कहां हो तुम...रानी मिंज...


कहां हो तुम
रानी मिंज
मेरी बच्ची
और तुम सी
ढेरों बच्चियां
अपनी मासूम
आंखो से
आसमान को नापने वाली
पैरों से धरती को
जानने वाली
अपनी भोली मुस्कान से
दुनिया को जगमगाने वाली
...

कौन आदमखोर तेंदुवा
या अलसाता मगरमच्छ
या फ़िर कोई रंगा सियार
तुम्हें अपना शिकार
बना गया
तुम्हारे मां बाबा के जीवनों में
हमेशा के लिए
अंधेरा घोल गया
उनके
टूटे फ़ूटे गीतों के
बोल तक पी गया
उनके दारूण दुख में
उपहास का जहर
उंडेल गया
कौन था वो
कौन है वो
अनाम आदमखोर
जो मेरी बच्चियों
तुम्हें जीते जी
निगल गया
इतने सारे
लोगों के रहते


...
...
(अखबारों में गुमशुदा इश्तिहार पढ़ने के बाद... महानगरों की भीड़ में खो जाने वाली हमारी

अनाम बच्चियों के नाम)

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज ११




जंगल गाथा

१.

जंगलों के जो राजा थे कभी
भालू शेर और हाथी
वे जंगल से निकलते ही
चांदी के सिक्कों की
झंकार में खो गए
चंद सिक्कों के मोल में
गदहों घोड़ों सा तुल गए
गर सिर उठाकर
जीना भी चाहा जो कभी
तो चांदी के चमचमाते हुए
जूतों से पिट गए
उन्हें बेहोश और अधमरा मान
सियार और गिद्ध भी
उन्हें नोच खाने को पिल पड़े
और आस पास से गुजरते हुई
तमाशबीनों का हुजूम
यूं ही बेवजह भीड़ सा
उनके चारों ओर जुट गई
उन भालू शेर और हाथी के किस्सों को
महज कोई मिथक मान
बाकी लोग भी
बड़ी सहजता से भूल गए
...
उनके वंशज आज भी
राह तकते उनकी/जो
ले जाए गए थे
बंधुवाई में जबरन
जाने कौन से ऋण के एवज
परदेश में मनबहलाव खातिर
...
...

२.

जैसे जंगल में
आजाद घूमते
किसी दुर्लभ जानवर को
शहर ला के
पिंजरे मे
कैद कर लेना
....
जहां रोज
तिल तिल कर जीना
अपमान और तिरस्कार
की खुराक पर
जीवन भर पलना
....
और लोगों की
फ़रमाईश पर
ना चाहते हुए भी
खेल तमाशे दिखाना
....
....

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-