आदिम गूंज २५



धरती के अनाम योद्धा

इतना तो तय है/कि
सब कुछ के बावजूद
हम जियेंगे जगली घास बनकर
पनपेंगे/खिलेंगे जंगली फ़ूलों सा
हर कहीं/सब ओर
मुर्झाने/सूख जाने/रौंदे जाने
कुचले जाने/मसले जाने पर भी
बार-बार,मचलती है कहीं
खिलते रहने और पनपने की
कोई जिद्दी सी धुन
मन की अंधेरी गहरी
गुफ़ाओं/कन्दराओं मे
बिछे रहेंगे/डटे रहेंगे
धरती के सीने पर
हरियाली की चादर बन
डटे रहेंगे सीमान्तों पर/युद्धभूमि पर
धरती के अनाम योद्धा बन
हम सभी समय के अंतिम छोर तक...

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

धरती के सभी अनाम योद्धाओं के नाम
विश्व आदिवासी दिवस की आप सबको हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं!!!...

आदिम गूंज २४




शायद बेहद खतरनाक जुर्म है...

शायद बेहद खतरनाक जुर्म है
यहां पर सांस लेना
सांस लेने की हिमाकत करना
और एक-एक सांस के लिए
करना जद्दोजहद
...

जब उस रूंधी और घुटी हुई सांस की ध्वनि
भी न जाने क्यों सुनाई देती है
किसी विस्फ़ोट की तरह
शायद इसीलिए उसे दबाने की हरचंद कोशिश में
जूझते हैं लोग
तरह तरह की साजिश/षडयंत्र रच
...

बिना सोचे/समझे कि
अवरूध सांसो की तेज रफ़्तार
अक्सर किसी तूफ़ान की पूर्वसूचना होती है
...
...

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज २३



बांस की नन्ही सी टहनी....

जड़ों का
सघन जाल
रच देता है
एक अदभुत दुनिया
जमीन के अंदर
काफ़ी गहरे तक
कोमल तंतुओं का जाल
कि बांस की नन्ही सी टहनी
सब कुछ भुलाकर
खेलती रहती है आंखमिचौली
उन जड़ों के
अनगिन तंतुओं के
सूक्ष्म सिरों की भूलभूलैया में छिपकर
उस अंधेरी दुनिया में बरसो तक
बगैर इस बात की चिंता किए
कि क्या यही है लक्ष्य
उसके जीवन का
क्योंकि जीवन तो
जी्ना भर है
हर हाल में
...

यह बात वो बांस की टहनी
जानती है शुरू से ही
इसलिए रहती है निश्चिंत
कि तयशुदा वक्त के बाद
उसका भी समय बदलेगा
कि रखेगी वो भी कदम
रोशनी की दुनिया में किसी दिन
और अपने लचीलेपन पर मजबूत
इरादों से रचेगी एक
अद्भुत दुनिया
वो कमजोर नाजुक मुलायम सी टहनी
...
उसे अक्सर सुन पड़ता है
अजीब सी सरसराहट और सुगबुगाहट
अपने आस पास की दुनिया में
जो हंसती खिलखिलाती
बढ़ती जा रही है
अंधेरों से रोशनी की ओर
उस नयी दुनिया के
कितने ही सपने संजोए
वहां पहुंचने की जल्दी में
एक दूसरे से
धक्कामुक्की करती
लड़ती झगड़ती
जिसका सपना
न जाने कबसे
घुमड़ रहा है उनके
चेतना के फ़ेनिल प्रवाह में
...
पर छोटे से झुरमुट
की खामोश दुनिया में
बांस की टहनी
रहती है अपनी जड़ों के करीब
अपनी दुनिया की सच्चाईयों से सराबोर
कि टिकी रहे
हर चुनौती के सामने
अपने मजबूत इरादों के साथ
वो कमजोर मुलायम सी टहनी
...
...

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज २२



जंगली घास...


नहीं चलता है तुम्हारा
या किसी का
कोई भी नियम/कानून
जंगली घास पर
भले ही काट छांट लो
घर/बगीचे की घास
जो सांस लेती है
तुम्हारे ही
नियम कानून के अधीन
...

पर/बेतरतीब
उबड़खाबड़ उगती घास
ढ़क देती है धरती की
उघड़ी देह को
अपने रूखे आंचल से
और गुनगुनाती है कोई भी गीत
मन ही मन
हवा के हर झौंके के साथ
...

जंगली घास तो
हौसला रखती है
चट्टानों की कठोर दुनिया में भी
पैर जमाने का दुस्साहस
और उन चट्टानों पर भी
अपनी विजय पताका
फ़हराने का सपना
जीती है जंगली घास
...

उपेक्षा तिरस्कार और वितृष्णा से
न तो डरती न सहमती है
बल्कि उसी के अनुपात में
फ़ैलती और पनपती है
अपने ही नियम कानून
बनाती जंगली घास
...
...


-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज २१

कन्फ़ेशन- मिय कल्पा....


तो फ़िर बचता क्या है विकल्प
सिवाय कहने के/मान लेने के/कि
जी मंजूर है हमें/आपके सब आरोप
शिरोधार्य है आपकी दी हर सजा
जहां बांदी हो न्याय/सत्ता के दंड विधान की
जिसमें नित चढ़ती हो निर्दोषों की बलि
दुष्ट/दोषी हो जाते हों बेदाग बरी
गवाह/दलील/अपील/सभी तो बेमानी है यहां
कि जिसमें तय हो पहले से ही फ़ैसले
जिनके तहत/यदि जब-तब
जिंदगी के भी हाशिए से अगर/बेदखल कर
धकिया जाते हैं लोग/और
मनाही हो जिन्हें/सपने तक देखने
मनुष्य बने रहने की
नैराश्य और हताशाओं की
कालकोठरी में/जुर्म साबित होने से पहले ही
काला पानी की सजा/आजीवन भुगतने को अभिशप्त
...
...

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज २०

पानी का बुलबुला...

मेरे आंसू हैं महज 
पानी का बुलबुला
और मेरा दर्द 
सिर्फ़ मेरा दिमागी फ़ितूर
उनके तमाम कोशिशों के बावजूद
मेरे बचे रहने की जिद्द के सामने
धाराशायी हो जाते हैं
उनके तमाम नुस्खे और मंसूबे
अपने उन्हीं हत्यारों की खुशी के लिए
रोज हंसती हूं गाती हूं मैं
जिन्हें सख्त ऐतराज है
मेरे वजूद तक से
उन्हीं की सलामती की दुआ
रोज मांगती हूं मैं
अजनबी होते देश में
रहने की कीमत
रोज अपना सिर कटा कर
चुकाती हूं मैं.

...
...
-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज १९

उजाले से...

अक्सर सुना है लोगो को शिकायत करते
उजाले से भला क्या मिला हमें आजतक
उजाले ने तो आकर हमारे सामने
कर दी कितनी ही परेशानियां खड़ी
भला किसे जरूरत है उजाले की अब
जब अंधेरों से ही काम चल जाता है अब
और फ़िर अब तो
आदत सी हो गई है अंधेरों की
सीख लिया है अब तो उजाले के बिन जीना

...

उजाला तो महज भटकाता है
जाने किन उलजलूल सवालों में उलझाता है
अब भला कौन उसके बहकावे में आए
अपनी हरी भरी जिंदगियों में
बबूल और ऊंटकटारे बोए
और लहूलुहान पैरों से
बाकियों की तरह जिंदगी की दौड़ दौड़े

...

जब से अंधेरों में सिमट आई है मंजिले
उनके भी पहुंच के भीतर
जब औरों की तरह
उठाकर फ़ायदा अंधेरों का
उन्होंने भी खोज ली है
काफ़ी मशक्कत के बाद
सुरंगो भरी वो चोर गली
और खोद ली है अपने घरों तक
कई नई सुरंगो का मकड़जाल
चोरी छिपे उस चोर गली तक
जिसके मुहाने पर है मौजूद
बेलगाम समृद्धि का अकूत खजाना
जिसपर था कब्जा अब तक
चंद चुने हुए लोगो और घरानो का
अब वे भी तो हो गए हैं हिस्सेदार
उन चमकीले चटकीले सपनो का
और हाथ बढाकर छू कैद कर सकते हैं उन्हें
अपनी रूखी खुरदुरी हथेलियों में
अपने ही बूते अपनी बुद्धि बल कौशल से

...

अंधेरों की चाहत में
छलबल और झूठ प्रपंच से
हाथ मिलाकर
देशनिकाला दे दिया जबसे
गदहे पर बिठलाकर
सच्चाई ईमानदारी और मेलप्रेम जैसे
उज्जड गवारों को जिन्हें नहीं है तमीज
बदलते समयो के रंगरूप में/ खुद-ब-खुद
ढल जाने की
कितना चैन है हर तरफ़
कहीं कोई अप्रिय असहज तान की गूंज नहीं
जो कर दे रंग में भंग मस्ती भरे महफ़िल का

...

पर उजाले ने दबे पांव आकर
कर दिया है सब कुछ चौपट
और लेकर आया है वो साथ अपने
कीड़े मकौड़े सा रेंगते
अनगिनत दावेदारों का
एक अंतहीन हुजूम
जिन्होंने ठानी है
बरसो की भूख मिटाने की
सब कुछ को हजम कर जाने की
किसी छापेमार दस्ते सा
तहस नहस करने की
चोरी छिपे सेंध मारी के
उन तमाम बेहतरीन और नायाब मंसूबो का
ताकि हो पर्दाफ़ाश अंधेरों की करतूतों का
और साकार हो उजाले का सपना हर दिल हर घर में

...
...

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-