आदिम गूंज २२



जंगली घास...


नहीं चलता है तुम्हारा
या किसी का
कोई भी नियम/कानून
जंगली घास पर
भले ही काट छांट लो
घर/बगीचे की घास
जो सांस लेती है
तुम्हारे ही
नियम कानून के अधीन
...

पर/बेतरतीब
उबड़खाबड़ उगती घास
ढ़क देती है धरती की
उघड़ी देह को
अपने रूखे आंचल से
और गुनगुनाती है कोई भी गीत
मन ही मन
हवा के हर झौंके के साथ
...

जंगली घास तो
हौसला रखती है
चट्टानों की कठोर दुनिया में भी
पैर जमाने का दुस्साहस
और उन चट्टानों पर भी
अपनी विजय पताका
फ़हराने का सपना
जीती है जंगली घास
...

उपेक्षा तिरस्कार और वितृष्णा से
न तो डरती न सहमती है
बल्कि उसी के अनुपात में
फ़ैलती और पनपती है
अपने ही नियम कानून
बनाती जंगली घास
...
...


-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज २१

कन्फ़ेशन- मिय कल्पा....


तो फ़िर बचता क्या है विकल्प
सिवाय कहने के/मान लेने के/कि
जी मंजूर है हमें/आपके सब आरोप
शिरोधार्य है आपकी दी हर सजा
जहां बांदी हो न्याय/सत्ता के दंड विधान की
जिसमें नित चढ़ती हो निर्दोषों की बलि
दुष्ट/दोषी हो जाते हों बेदाग बरी
गवाह/दलील/अपील/सभी तो बेमानी है यहां
कि जिसमें तय हो पहले से ही फ़ैसले
जिनके तहत/यदि जब-तब
जिंदगी के भी हाशिए से अगर/बेदखल कर
धकिया जाते हैं लोग/और
मनाही हो जिन्हें/सपने तक देखने
मनुष्य बने रहने की
नैराश्य और हताशाओं की
कालकोठरी में/जुर्म साबित होने से पहले ही
काला पानी की सजा/आजीवन भुगतने को अभिशप्त
...
...

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-