आदिम गूंज ३१

 
हमारे अविरल बहते आंसू...
 
 
हमारे अविरल बहते आंसू
बनकर टिमटिमाएंगे
घने जंगलों में
जुगनुओं की कतार बनकर
हमारे पसीने की एक एक बूंद
जगमगाएगी नभ में सदा
आकाशगंगा बनकर
हमारे पुरखों के गीत
गूजेंगे घने जंगलों के
हर कोने में
कोई जादुई तान बनकर
और लहराएंगे हमारी मनभित्तियों पर
कोई अबूझ स्वप्नलहरी बनकर
हमारा अस्फ़ुट विलाप
गूंजेगा समूचे संसार में
मांदल की ताल पर थिरकती
कोई अनसुनी संगीतलहरी बनकर
हम जिएंगे साथ-साथ
इस नारकीय अंधकूप में
एक दूसरे का हाथ थामे
अपने सपनों और अपनों के लिए
रोशनी का जंगल बनकर
हमारे दर्द से बोझल
दबे कुचले अस्फ़ुट शब्द
लौटेंगे किसी दिन दुनिया में
बवंडर और तड़ित की
भयंकर गुंजार बनकर
...
...
-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज ३०


काला इंद्रधनुष

बेसमझ/ बेखबर 
लड़ रहे बार-बार
अपने अपने घरो में 
बाजारो में/गलियो में 
लड़ रहे आपस में
...

बेसमझ/ बेखबर 
छोटी- छोटी बातों पर
छोटे बड़े झगड़े हैं
तू-तू है मैं-मैं है
रोज ही नए झगड़ें हैं
दंगे हैं
लूट हैं
कही मार-काट है
कितने ही वारदात हैं
घटते हैं रोज ही
कभी यहां/ कभी वहां
...

डोर बंधी कठ्पुतली से 
उलझते है बार-बार
उन्हीं तानो- बानों में
उन्हीं आश्वासनों में
उन्हीं -उन्हीं बहानों में
उन्हीं कैदखानों में
डोर बंधी कठ्पुतली से
बेसमझ/ बेखबर 
...

डोर जिनके पास है
बैठे हैं चुपचाप 
देखते है तमाशा
पड़ता है उल्टा या सीधा
अभी जो फ़ैंका था पासा
देखते हैं तमाशा
डोर जिनके पास है
बैठे हैं चुपचाप
... 

गुपचुप-गुपचुप
बुनते नए-नए जाल 
रचते नए इद्रधनुष
एक जाल टूटे तो 
दूसरा जाल हाजिर है
दूसरा जो टूटे तो 
तीसरा जाल हाजिर है 
जितने भी चाहें वे
उतने जाल हाजिर हैं
भेद न खुल जाए कहीं
चाल न समझ जाएं कहीं
ढीली पड़े न पकड़ कहीं
टूट न जाए डोर कहीं
गुपचुप-गुपचुप
बुनते नए-नए जाल 
...
...

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज २९

 

काला इंद्रधनुष
 
अभी/ आपके लिए/ वे
महज
साधन हैं/ पुर्जे हैं
टट्टू हैं/ पिठ्ठू हैं
उन्हें सिखाकर/ पटाकार/
बहलाकर/ फ़ुसलाकर
कुछ भी करते रहिए
कुछ भी करवाते रहिए
........
 
वे महज भेड़ें हैं
जिधर चाहे हांक लीजिए
महज गऊएं हैं वे अभी
चाहे जहां चरा आइए
पर/ जब वे आंख खोलेंगे
जबान खोलेंगे/ हाथों से तौलेंगे
आपकी हर बात ....
आपकी हर घात ....
आपकी हर चाल ....
तब ........
तब क्या करेंगे आप !?
...
...

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-


आदिम गूंज २८





नन्ही सी घास का सच...
रात दिन
कुचले और रौंदे
जाने से
थकित निढाल
नन्ही सी घास के सिर पर
कौन फ़ेरता है हाथ प्यार से
और फ़ुसफ़ुसाता है उसके कानो में
उगो बढ़ो और फ़ैल जाओ हर ओर
बिन मांगे दो हर किसी को
अपने मृदुल शीतल स्पर्श का उपहार
और लोगो के सूने अंतर में
बस जाओ बनकर
बंजर वक्तों में
अंधेरे समयों में
बदलते हुए समय का
समय के फ़लते रहने का
झिलमिलाते समयों का
सपना बनकर
भले ही न हो किसी को भी
चिंता तुम्हारी
ओ नन्ही घास
तुम तो बस
आगे बढ़ो
और ढक दो
सूखी पपड़ियाई धरती के
अंदर सुलगते जख्मों को
अपने कोमल आंचल से
और अपने रक्त-प्राण से सींचो
मिलकर धरती का पथराया दिल
और बस जमी रहो/ खड़ी रहो
डटी रहो अपनी अपनी जगह पर
सब कुछ के बावजूद
सूख जाने और मुर्झा जाने तक
न करो इंतजार
समय के बदलने का
या समय को बदलने का
कभी कभी जरूरी है
तेज हवा के खिलाफ़
सिर्फ़ खड़े रहने की
कोशिश भर करना
और बार बार गिरने से भी
न घबराना या हताश होना
क्योंकि
पराजयों की नींव पर ही तो
टिकता है देर तक
कोई भी विजयस्तंभ
तूफ़ान भी
चुपके से आकर
खिसका देता है जमीन
अच्छे भले दिग्गजों की
चटा देता है धूल
महाबलियों बाहुबलियों को
पर बाल भी बांका
नहीं कर पाता है
घास की अनगिन कतारों का
जो जुड़ी रहती है हमेशा
अपनी जमीन और जड़ से
सो व्यर्थता हीनता के
भंवरजाल में उलझे बिना
ओ नन्ही सी घास/ तुम
अपमान पीड़ा और हताशाओं के पार
जाकर सिर्फ़ उगो बढ़ो
और फ़ैल जाओ हर ओर
...
...
-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज २७




स्वप्नजीवियों का संसार...
शायद होता है
कमल के पास
धीरज और धैर्य
और साहस का/कोई
अक्षय भंडार
जिसके बूते
दे सके चुनौती वो
अपने आस-पास फ़ैले
काई और कीच के
दुर्गंधमय साम्राज्य को
जो तुला है सब कुछ पर
अपना आधिपत्य
अपना स्वामित्व जमाने को
सब-कुछ को
स्वयं का प्रतिबिंब
बन जीने को विवश कर
...
उससे जूझने या
उसे चुनौती देने की
शेखचिल्लीपूर्ण मूर्खता
या पागलपन पालना
किसके बस में होता है
सो सहर्ष स्वीकार करते है
उसका आधिपत्य/और
स्वामित्व अपने-अपने
जीवनों में
और प्रतिबिंब बन जीने को
एकमात्र विकल्प जान
दुनियादारी और समझदारी की
आड़ में यथास्थितिवादी संसार की
सत्ता को स्वीकारते
हर परिवर्तन के सपने को
भ्रम या भ्रांति मान
आकाशकुसुमीय स्वप्न जान
जीते हैं सब
 ...
उन गहराती कालिमायुक्त
परछाईयों का मकड़जाल
मलिन या धूमिल
नहीं कर पाता है
कमल के अंतस के
रूप-रंग को
उसका अप्रतिम सौन्दर्य
बरबस आकृष्ट करता है सबको
अपनी ओर
जो अचंभित हो
ताकते भर है उसको
जो जुटी है अपने
दल-बल के साथ
उस दुर्गंधमय
कीचयुक्त काईमय के
दमघोंटू परिवेश में भी
किसी तरह सांस ले
सब कुछ को भुला/प्रयास
एक नई सृष्टि रचने का
अपने अदम्य साहस से
अपनी दुनिया को बदलने का
असीम धैर्य और धीरज के साथ
परिवर्तन के लिए जूझने का
अपने अथक परिश्रम से
असंभव को संभव कर देने का
पर/ महज प्रतिबिंब बनकर
जीने के एकमात्र विकल्प की
धज्जियां बिखेर/उस
दमघोंटू साम्राज्य के चंगुल से
बाहर निकल, खुली हवा में
सांस लेना और एक सुगंधित
स्वर्ग रच देना अपने चारों ओर
...
पर लोग कहां जान पाते हैं
उसकी कहानी
उसके सुख-दुख का लेखा जोखा
कौन रखता है
जिसे तय करना पड़ता है
संघर्षमय सफ़र हर पल
एक सांस से
दूसरी सांस तक का
असहनीय सफ़र
...
उसकी घुटती-थमती सासों में
बसा है सपनों का
अक्षय भंडार
जो उन डूबती-थमती
सांसों की कमजोर/शिथिल
बुझ जाने को विवश
लड़खड़ाती-फ़ड़फ़ड़ाती
दीपशिखाओं में भी
फ़ूंक देता है
प्राणदायिनी उर्जा
...
कि आने वाली
सहमी सशंकित
कमल की कलियां भी
समय आने पर
किसी तरह हिम्मत बटोर
बढ़ पाएं उस असंभव सफ़र पर
और साकार कर पाएं
जिंदगी के हर उस स्वप्न को
जिनमें बसती-जीती है जिंदगी
...
कमल को देख
सिर्फ़ निहारकर
उसका सौन्दर्य
चकित अचंभित
भर होते हैं हम
पर/उस सा जीवन
महज मिथक भर है
सब के लिए
कोई आकाशकुसुमीय स्वप्न
यथार्थ के धरातल पर
ऐसे सुकुमार स्वप्न
भला कब तक
बच पाते हैं
चकनाचूर होने से
पर क्या उस
स्वप्न को जी पाना
इतना असंभव है क्या?!
...
जोखिमभरे रास्तों पर
चलकर ही तो
मिलती है
स्वप्निल संसार को
खोलने-खोजने की कुंजी
संकेतमाला और मानचित्र
और मिलता है उन
स्वप्नजीवियों और स्वप्नदर्शियों का पता
जो उस दुर्गम सफ़र पर
जा चुके या जाने को
आतुर व्याकुल हैं
ताकि ला पाएं
किसी तरह बटोर कर
परिवर्तन की बयार
जो आती है किसी
दूसरे लोक से/अपने
इस रूके-थमे
गतिहीन गतिरोध से भरे
मृतप्राय संसार में/जिसे
जिला दे अपनी असीम ऊर्जा से
ताकि पाएं हम सब/एक
फ़लवन्त और जयवन्त जीवन!!
...
...
-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज २६

सच का अज्ञातवास
 
पूरी सजधज और
गाजे बाजे के साथ
मिलता है झूठ
किसी अंजान मोड़ पर
...
और खुद को बचाने की
तमाम तरकीबों के साथ
बेचारा सच
झूठ के झिलमिलाते
गलियारे में
छिपता फ़िरता है
अपने भी साए से
...
बात बेबात पिटता है
जब तब
झूठ के बेशुमार
अनदेखे हाथों से
सिटपिटाया पगलाया
घबराया सच
घूमता है
अपनी ही परछाईयों के इर्द गिर्द
...
उसके पहचान वाले
भी तो फ़ेर लेते हैं चेहरे
वक्त पड़ने पर
और खामोशी के भंवर में
खो जाती है सच की
मूक बांसुरी सी आवाज!
...
झूठ के तेज और तीखे तेवरों से
डरा सहमा सच
खुद को बचाने की खातिर
झूठ की बनाई हुई
भूलभुलैयांदार दुनिया में
जीता है सच
अपनी सांसों की
आहटों तक को रोक कर
...
ताकि झूठ रहे अनजान
सच के छिपने की जगह से
और छापामारी/ सेंधमारी करके
जुटाए सबूत
सच अपने वजूद का!
...
...
-उज्जवला ज्योति तिग्गा-