आदिम गूंज ६

सच के चेहरे

आपका सच
वाकई अलग है
मेरे सच से
आपका तो है
शायद विशालकाय
सुंदर और उजला
आसानी से नजर
आने वाला
और मेरा किसी
क्षुद्र कीट कीटाणु सा
अदृश्य असुंदर और भद्दा
जो आपकी
सुकोमल संवेदना जगत को
कर देता है
तार तार
....
दोनों दुनियाओं के बीच
फ़ैले हैं
घृणा अवहेलना और अवमानना की
ऊंची ऊंची दीवारें
जिस के परे
नहीं पहुंचती है
जरा सी भी आवाज
आमना सामना
होने पर भी
तिरस्कार और अवहेलना
ही है बदा
....
अपने अपने
सच का
दामन थामे
गुजरते हैं रोज
एक ही गली से
पर मिलके
साथ नहीं चल पाते
थोड़ी दूर ही सही
और खो जाते है
अनिर्णय या
गलत निर्णयों के
दलदली गढ़ों में
....
जानती हूं कि
मेरा सच भी
काफ़ी अलग है आपसे
जो है मेरी ही तरह
निरीह और लाचार
और दुनिया भी तो
आखिरकार
झुकती है
हर ताकतवर के सामने
जिसका सच
सबके सिर चढ़कर
बोलता है
और हमारा
बेढब बेलौस अनगढ़
सच तो
जन्मता ही है
गुमनामी में गर्क
होने को
....
दोनों सचों के बीच
पड़ता है
घृणा वितृष्णा और उब के
उबकाई भरा
बदबूदार दलदल
जिसे पार करना
आपके सच के बस की नहीं
....
....


भयभीत लोग

कितने भयभीत लोग हैं
हम सब
....

कि किसी को
प्यार देने से
डरते हैं हम
....

कि किसी के
साथ खड़े होने से
डरते हैं हम
....

कि किसी को
अपनी दुनिया में
लाने से
डरते हैं हम
....

कि किसी को
अपनाने के
नाम से भी
डरते हैं हम
....

कि सही को सही
और गलत को गलत
कहने से भी
डरते हैं हम
....

और अपने आस पास
होते हुए अन्याय
का विरोध करने से भी
डरते हैं हम
....
....

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

2 टिप्पणियाँ:

धीरेन्द्र अस्थाना ने कहा…

phli rchna thodi leek se htkr lgi
sach to sch hota hai.
aur bhybheet log kbhi sch ko sweekar nhin kr pate.
abhaar.

Satya Narayan Jeengar ने कहा…

अनकही, अनसुलझी -- जंगल और आदिवासियों की नैसर्गिक आपसी संबद्धता को जिस प्रकार से इन कविताओं में परिभाषित किया है...वो जीवन के उस अनछुए सार को बताता है जिसे आज का भौतिकवादी इंसान समझना ही नहीं चाहता....आपके प्रयासों को मेरा प्रणाम...

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