आदिम गूंज २१

कन्फ़ेशन- मिय कल्पा....


तो फ़िर बचता क्या है विकल्प
सिवाय कहने के/मान लेने के/कि
जी मंजूर है हमें/आपके सब आरोप
शिरोधार्य है आपकी दी हर सजा
जहां बांदी हो न्याय/सत्ता के दंड विधान की
जिसमें नित चढ़ती हो निर्दोषों की बलि
दुष्ट/दोषी हो जाते हों बेदाग बरी
गवाह/दलील/अपील/सभी तो बेमानी है यहां
कि जिसमें तय हो पहले से ही फ़ैसले
जिनके तहत/यदि जब-तब
जिंदगी के भी हाशिए से अगर/बेदखल कर
धकिया जाते हैं लोग/और
मनाही हो जिन्हें/सपने तक देखने
मनुष्य बने रहने की
नैराश्य और हताशाओं की
कालकोठरी में/जुर्म साबित होने से पहले ही
काला पानी की सजा/आजीवन भुगतने को अभिशप्त
...
...

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें