आदिम गूंज २८





नन्ही सी घास का सच...
रात दिन
कुचले और रौंदे
जाने से
थकित निढाल
नन्ही सी घास के सिर पर
कौन फ़ेरता है हाथ प्यार से
और फ़ुसफ़ुसाता है उसके कानो में
उगो बढ़ो और फ़ैल जाओ हर ओर
बिन मांगे दो हर किसी को
अपने मृदुल शीतल स्पर्श का उपहार
और लोगो के सूने अंतर में
बस जाओ बनकर
बंजर वक्तों में
अंधेरे समयों में
बदलते हुए समय का
समय के फ़लते रहने का
झिलमिलाते समयों का
सपना बनकर
भले ही न हो किसी को भी
चिंता तुम्हारी
ओ नन्ही घास
तुम तो बस
आगे बढ़ो
और ढक दो
सूखी पपड़ियाई धरती के
अंदर सुलगते जख्मों को
अपने कोमल आंचल से
और अपने रक्त-प्राण से सींचो
मिलकर धरती का पथराया दिल
और बस जमी रहो/ खड़ी रहो
डटी रहो अपनी अपनी जगह पर
सब कुछ के बावजूद
सूख जाने और मुर्झा जाने तक
न करो इंतजार
समय के बदलने का
या समय को बदलने का
कभी कभी जरूरी है
तेज हवा के खिलाफ़
सिर्फ़ खड़े रहने की
कोशिश भर करना
और बार बार गिरने से भी
न घबराना या हताश होना
क्योंकि
पराजयों की नींव पर ही तो
टिकता है देर तक
कोई भी विजयस्तंभ
तूफ़ान भी
चुपके से आकर
खिसका देता है जमीन
अच्छे भले दिग्गजों की
चटा देता है धूल
महाबलियों बाहुबलियों को
पर बाल भी बांका
नहीं कर पाता है
घास की अनगिन कतारों का
जो जुड़ी रहती है हमेशा
अपनी जमीन और जड़ से
सो व्यर्थता हीनता के
भंवरजाल में उलझे बिना
ओ नन्ही सी घास/ तुम
अपमान पीड़ा और हताशाओं के पार
जाकर सिर्फ़ उगो बढ़ो
और फ़ैल जाओ हर ओर
...
...
-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें