आदिम गूंज ९

समय जब करेगा सवाल

समय जब करेगा सवाल
तो जवाब भी देना ही पड़ेगा
इतिहास को भी
कि/ किन अंधकूपों में
फ़ैंक दी थी कभी कुंजियां
उन बंद अंधेरे कमरों की
जहां तक पहुंचने का
रास्ता तक भी
गायब हो चुका है
लोक मानस के भंडार तक से
........
........

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज ८

१.

कब तक गाऊंगी
मैं तुम्हारे गीत
या किसी दूसरे के गीत
क्यों न तलाशूं मैं अपने सुर ताल
और रचूं अपना संगीत
भले हों वे बेसुरे
ताल लय ज्ञान विहीन
और शब्द भी हों टूटे फ़ूटे
अनगढ़ और दरिद्र
........
........
२.

जान चुकी हूं
अब तो मैं भी
कि हर नए शिकार के लिए
मौजूद हैं
तुम्हारे पास
एक से एक नए
मुखौटों के भंडार और
अनगिन चालों का अंबार
........
........

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज ७

गुमनाम इतिहास


जब एक फूल
तोड़ लेने भर से
मच जाती है
तारों में भी खलबली
फिर
वक्त के किसी भी
लम्हे में क्यों
मिलता नहीं कहीं
जिक्र तक अपना
........
........



वक्त का कारवां
गुजरता रहता है सामने से
किसी अजनबी की तरह
और वक्त की झिर्रियों में से
झाकते भर रह जाते हैं
अजूबा और पहेली बनकर
........
........

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गाथा - एक परिपेक्ष्य

प्राचीन काल में लोग प्रकृति की क्रूर शक्तियों के साथ बड़े ही रागात्मक तादात्मक और सामंजस्यपूर्ण एवं सौहार्दपूर्ण रिश्ते की डोर से बंधे हुए थे. जो एक ही पल में एक तरफ़ उन के दिलों को मोह लेती थी, तो दूसरी ओर उन्हें बुरी तरह भयभीत भी कर देती थी, और साथ ही उन में उत्सुकता और कौतुक जैसे मनोभावों को भी जन्म देती थी. यही वो समय था जब प्राचीनतम आदिम समाजों के उन भोले भाले निर्दोष और सरल लोगों के बीच विभिन्न मिथक और रहस्य अपनी आंखे खोल रहे थे, यानी जन्म ले रहे थे. ये प्राचीनतम आदिम गुट ही उन सभी अत्याधुनिक उन्नत और विकसित सामाजिक तानों बानों पर आधारित समाजों की आधारशिला है, जिससे आज हम सभी सुपरिचित है. पर वास्तविकता में आज के वे आधुनिक समाज उन लोगों से कई प्रकाश वर्ष दूर है, जो प्राचीनकाल में पूरी दुनिया भर में इधर से उधर घूमा करते थे.

हम उन आदिम गुटों में रहने वाले लोगों के सादगी भरे जीवनों के बारे में जानकर अचंभा किए बगैर नहीं रह सकते, पर उनका अपने आस पास की दुनिया यानी प्रकृति के साथ पल पल गूंजते किसी मधुर रागात्मक संगीत सा था. मानव जाति के उन आदिम पूर्वजों ने अपने सीमित ज्ञान से ब्रह्मांड और धरती के अभेद्य रहस्यभंडारों की कैद में उन रहस्यों पर से पर्दा उठाने की कोशिश की, जो उनके दिन प्रतिदिन की जिंदगी को प्रभावित कर रहे थे. उनके प्रयास भाषा के विकास के साथ साथ कला के विभिन्न स्वरूपों में जैसे चित्रकला, लेखन. नृत्य, संगीत के अलावा जादू टोना और धर्म के अपने आरंभिक अनगढ़ और अपरिष्कृत रूप में उभरे और पनपे. यही सब तो उनके विरासत और धरोहर की कुल जमा पूंजी थी, जिसे उन्होंने अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए मिथकों और लोककथाओं के माध्यम से अपनी मौखिक और कंठस्थ परंपरा में गूंथ कर सुरक्षित रखा.

हमारे उन प्राचीन पुरखों ने संसार में अपनी जगह समझने की कोशिश तो की, जिसमें उन्होंने खुद को पाया, पर उन्होंने कभी भी हमारी तरह प्रकृति पर नियंत्रण पाने और उसे अपने मुताबिक चलाने की कोशिश नहीं की. प्राचीन काल ने उन के दिलों में एकता, भाईचारा, सहयोग के साथ साथ प्रकृति के साथ शांतिपूर्ण सह अस्तित्व जैसी भावनाएं जगाई और उन्हें प्रतिष्ठित किया, जिसे वे आराध्या और पूज्या मानते थे. प्रकृति जो कि उनके आस पास जहां तहां बिखरे जिंदगी के विभिन्न रूपों की एक मात्र स्रोत है, वही तो आखिर उनकी भी जन्मदायिनी आश्रयस्थली और साथ ही पालनकर्ता ठहरी!

पर आधुनिक सभ्यता आज जीवन के हर क्षेत्र में हुए प्रौद्योगिकी विकास के जिस उच्चतम या चरम शिखर पर आसीन है, जहां मानव जिनोम के मानचित्रण में सफ़ल हुए लोग जो जिंदगी की बुनियादी निर्माण के लिए जिम्मेवार ब्लाक्स या ढांचा के रहस्योघाटन पर गर्वित होकर ईश्वर की भूमिका तक निभाने में तुल गए है. वे अमरत्व की चाह में मौत को भी ठेंगा दिखाते हुए क्लोनिंग जैसी तकनीकों का विकास करके चिर यौवन की लक्ष्य प्राप्ति जैसे जटिल और दुरूह अनुसंधानों में वक्त और पैसे दोनों को मुक्त हस्त से लुटा रहे हैं. जब कि ऐसे मुद्दे कई जटिल बातों और उलझनों से भरे हुए हैं, जो कि हमारे सामाजिक ताने बाने को, जो काल के प्रहारों और थपेड़ों से पूर्णतया नष्ट होने से किसी तरह बची रह गई थी, उसे ध्वस्त करने को आमादा है. पर हमारा सामाजिक ताना बाना भी अब काफ़ी हद तक चिथड़े चिथड़े होने के साथ साथ जर्जर हालत में पहुंच चुका है. आज के वैज्ञानिक रोगों के साथ निरंतर युद्धरत हैं पर कई असाध्य और घातक रोग आज भी उनकी नींदे उड़ा देती है, जो हमारी कुल आबादी या जनसख्या के एक काफ़ी बड़े हिस्से को एक ही झटके में सफ़ाया करने में सक्षम हैं.

आज तक हुई प्रौद्योगिकी विकास हमारे जीवनों की गुणवत्ता को बढ़ाने में पूरी तरह से विफल रही है. आज मानव अपने पूर्वजों की अपेक्षा कहीं अधिक अकेला और भयभीत है यद्यपि संचारतंत्र के क्षेत्र में हुई अभूतपूर्व प्रगति जो हमारे जीवन के हर क्षेत्र को गढ़ती और नियंत्रित करती है और जिसकी वजह से आज समूचा संसार एक वैश्विक गांव में तब्दील हो चुका है. यहां तक कि पृथ्वी के सुदूर या दूरस्थ कोनों में स्थित क्षेत्र जो कुछ दिनों पहले तक अलग थलग होने की वजह से किसी भी तरह के संपर्क के भी परे थे, वे आज हमारी दुनिया का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं. अब वैज्ञानिक भी ब्रह्मांड के परे झांकने के लिए भी अपनी कमर कस चुके है, ताकि उसके रहस्यों से मानव जाति परिचित हो सके. तौभी आधुनिक सभ्यताएं गरीबी, भूख, बेरोजगारी, अशिक्षा और जैसे महा विपत्तियों से ग्रसित है. आम जनता के लिए आधारभूत और बुनियादी सुविधाओं का अभाव और उनके बीच प्रगति और विकास के फलों का असमान वितरण उन के बीच असंतोष दुश्मनी और अविश्वास के बीज बो रहे हैं, जिनकी वजह से उपजा अंधा क्रोध सतह के नीचे खदबदा रहा है. अगर इन मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया गया तो किसी दिन उसमें होने वाले विस्फ़ोट से सारी दुनिया दहल जाएगी. इस में कोई शक नहीं कि प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुए विकास के कारण एक ओर जहां हमारी जिंदगियां काफ़ी हद तक आसान हो गई हैं, पर दूसरी तरफ़ हम भावनाशून्य यंत्र या मशीन में बदल चुके है. जितनी अधिक प्रगति हुई है उतनी ही हमारी संजोकर रखने वाली मूल्यों का ह्रास हुआ है, जो कि हम सभी के पागलपन की हद चूहे दौड़ में शामिल होने की वजह से व्यर्थ और पुरानी पड़ चुकी हैं.

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज ६

सच के चेहरे

आपका सच
वाकई अलग है
मेरे सच से
आपका तो है
शायद विशालकाय
सुंदर और उजला
आसानी से नजर
आने वाला
और मेरा किसी
क्षुद्र कीट कीटाणु सा
अदृश्य असुंदर और भद्दा
जो आपकी
सुकोमल संवेदना जगत को
कर देता है
तार तार
....
दोनों दुनियाओं के बीच
फ़ैले हैं
घृणा अवहेलना और अवमानना की
ऊंची ऊंची दीवारें
जिस के परे
नहीं पहुंचती है
जरा सी भी आवाज
आमना सामना
होने पर भी
तिरस्कार और अवहेलना
ही है बदा
....
अपने अपने
सच का
दामन थामे
गुजरते हैं रोज
एक ही गली से
पर मिलके
साथ नहीं चल पाते
थोड़ी दूर ही सही
और खो जाते है
अनिर्णय या
गलत निर्णयों के
दलदली गढ़ों में
....
जानती हूं कि
मेरा सच भी
काफ़ी अलग है आपसे
जो है मेरी ही तरह
निरीह और लाचार
और दुनिया भी तो
आखिरकार
झुकती है
हर ताकतवर के सामने
जिसका सच
सबके सिर चढ़कर
बोलता है
और हमारा
बेढब बेलौस अनगढ़
सच तो
जन्मता ही है
गुमनामी में गर्क
होने को
....
दोनों सचों के बीच
पड़ता है
घृणा वितृष्णा और उब के
उबकाई भरा
बदबूदार दलदल
जिसे पार करना
आपके सच के बस की नहीं
....
....


भयभीत लोग

कितने भयभीत लोग हैं
हम सब
....

कि किसी को
प्यार देने से
डरते हैं हम
....

कि किसी के
साथ खड़े होने से
डरते हैं हम
....

कि किसी को
अपनी दुनिया में
लाने से
डरते हैं हम
....

कि किसी को
अपनाने के
नाम से भी
डरते हैं हम
....

कि सही को सही
और गलत को गलत
कहने से भी
डरते हैं हम
....

और अपने आस पास
होते हुए अन्याय
का विरोध करने से भी
डरते हैं हम
....
....

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम इतिहास - एक सफ़र

आदिम इतिहास की खोई हुई पगडंडियां

इतिहास साक्षी है कि सुदूर अतीत में संसार के हर कोने में मौजूद वे आदिम समाज जो लिखित रूप में अपने होने का साक्ष्य इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं करा पाए, उन का अस्तित्व इतिहास की दहलीज पर बिना अपनी उपस्थिति का कोई निशान या सुराग छोड़े बड़ी ही खामोशी से आहिस्ता आहिस्ता काल का ग्रास बन गया. और इस तरह कालांतर में काल के कगार से धीरे धीरे विस्मृति के अतल गहराईंयो की तरफ खिसकते हुए बढ़ते हुए बिना किसी सामूहिक चेतना का हिस्सा बने वे अंतत उन्हीं गहराईंयो में सदा के लिए विलुप्त हो गए. और बदले में अपने पीछे कई अनसुलझे रहस्यों का भंडार छोड़ गए जो आज भी अपने अन्वेषण और रहस्योदधाटन की बाट जोह रहा है.

गुफा मानव से लेकर आधुनिक सभ्यता तक के सफ़र में ऐसे कितने ही समाजों का कोई जिक्र या जानकारी नहीं मिलती जिनकी अलिखित परपरा रही है. उनके सामाजिक पक्षों जैसे उनकी जीवन पद्धति संस्कृति जीवन शैली रीति रिवाजों और परंपराओं के बारे में उपलब्ध जानकारी का अभाव हम लोगों के मनों में उन्हें जानने समझने की जिज्ञासा कौतुहल या उत्सुकता नहीं जगा पाता. यह सब कुछ शायद उनके लिए समय की बर्बादी के अलावा कुछ भी नहीं लगता है नितान्त व्यर्थ और समय का अपव्यय मात्र.

पर अगर हम भविष्य को अच्छी तरह से जानना समझना चाहते हैं तो हमें अपने जड़ों को पहचानना होगा क्योंकि भविष्य की दशा और दिशा हमारे इतिहास में अंतर्निहित है और अपने इतिहास को जाने बगैर महज आंखे बंद करके टटोल टटोल कर भविष्य की ओर कदम बढ़ाते रहने का फ़ैसला महज बेवकूफ़ी के अलावा भला और क्या समझा जाए. क्योंकि कई बार जल्दबाजी या हड़बड़ी में लिया गया फ़ैसला हमें आगे बढ़ने में मदद सहायता करने की बजाय हमें बेहद पीछे की ओर भी ढकेल सकता है और अब तक के तमाम प्रगति को खोखला और व्यर्थ साबित कर सकता है.

आदिम इतिहास के उबड़खाबड़ दुर्गम बीहड़ वनों में न जाने कितनी छोटी बड़ी पगडंडियां हैं जिनपर राजमार्गों पर चलने का आदी आधुनिक इतिहास उन्हें दुर्गम बीहड़ मानकर घुसने से कतराता है और उनके बारे में मनगढ़न्त किंवंदितियां गढ़ कर उन्हें किसी संपूर्ण सत्य की तरह दुनिया के समक्ष शब्दों का ऐसा ताना बाना रचकर इतने विश्वासपूर्ण और निर्भीक ढंग से प्रस्तुत करता है कि लोगों को उस पर विश्वास करने के अलावा कोई चारा या विकल्प नहीं बचता.

पर अगर कोई उन आदिम इतिहास के उबड़खाबड़ दुर्गम बीहड़ वनो में वास्तविक्ता की तलाश में निकले तो अवश्य ही जान पाएगा कि उन अंजाने बीहड़ो में न जाने कितनी छोटी बड़ी सुरंगों से पटी पगडंडियां है जिनके मुहाने दहानों का झुटपुटा संसार उन आदिम समाजों की अस्फुट और अस्पष्ट फुसफुसाहटों से हर पल गुंजायमान रहता है. उनका बेतुका अटपटा अस्पष्ट शोर दूसरों के लिए एक अबूझ पहेली है बस. जहां नदी की कल कल करती जलधारा सा गतिमान वेगमय और प्रवाहपूर्ण जीवन है. अभाव और असंभव परिस्थितियों को चट्टान से भी अधिक मजबूत और दृढ़ इरादों वाले वहां के निवासी चुटकियों में मिल कर हंसते गाते मसल देने और सुलझाने की ताकत रखने वाले वे लोग प्रकृति के रंगो से अपने अपने जीवनों को रंगमय और चटकीला बनाने में जुटे रहते थे जो कि उन के लिए अपवाद नहीं बल्कि सहज प्रवृति मात्र ही थी.

प्रकृति की गोद मे बसने वाले आदिम समाजों का जीवन विकसित समाजों के लीकबद्ध जीवन पद्धति की अपेक्षा कहीं अधिक सहज सरल एव संगीतमय होता है जिसके अनगढ़ सुरों का बीहड़ी सौंदर्य उत्सुकता के भाव तो शायद नहीं जगा पाता पर किसी जादुई दिवास्वप्न सा मनभित्तियों पर एक अस्पष्ट और धुंधला सा रेखाचित्र उकेर पाने में अनायास ही सफलता प्राप्त कर लेता है.

वेगवान झरनों और हहराती नदियों से प्रस्फुटित होने वाला कोलाहल पूर्ण मंत्रमुग्ध करने वाला जादुई संगीत वहां के निवासियों को अपने प्रवाहमान और निरंतर गतिमान जीवन से रास्ते में आने वाली हर रूकावटों और कठिनाईयों से पराजित न होते हुए हर पल गतिमान रहने की प्रेरणा भी देता है. और किसी ने सच ही कहा है कि यदि उन झरनों और नदियों के मार्ग में आने वाली तमाम बाधाओं जैसे कंकड़ पत्थर और चट्टानों को ह्टा लिया जाए तो उनका मंत्रमुग्ध करने वाला जादुई संगीत का उनके अंतर्तल की गहराईयों से प्रस्फुटित होना एक झटके से खत्म हो जाएगा या चुक जाएगा और उनके गीत हमेशा के लिए खो जाएंगे. कमोबेश यही सब कुछ हमारे जीवनों को भी हर परिस्थिति में उल्लासमय और संगीतमय बने रहने का संदेश देता है.

जीवनदायिनी प्रकृति इन आदिम समाजों की पूज्या भी है और आत्मीया भी. प्रकृति अपने इन भोले मासूम निष्पाप और निश्छ्ल बच्चो के मध्य कठिन और विपरीत परिस्थितियों में भी हर पल को उल्लासमय और संगीतमय ढंग से जीने की प्रेरणास्रोत बनकर उभरती है. प्रकृति उनके अस्तित्व का एक अभिन्न हिस्सा है और उनके बीच का सामजंस्यपूर्ण संबंध एक सांझी विरासत. उन बीहड़ वनों से आती शीतल सुवासित बयार कांच और कंक्रीट के जगलों में रहने वालो के मनों में किसी कोमल सुखद अहसास को जगाती तो है जो वहां सैलानी बनकर आते है पर उनकी चेतना या स्मृतियों में लंबे समय तक अपनी कोई पैठ नहीं बना पाती.

इतिहास के जगमगाते शीशमहल के किसी कोने के सूने अंधेरे गलियारों से उतरती सीढ़ियों के नीचे बने तलघरों और तहखानों के भूलभुलैंया भरे जाल में कैद चेतना के कगार से नीचे धकियाई कहानियां विस्मृतियों के गर्त में गिरकर विलीन होने को अभिशप्त है. पर कभी कभार वे भी बाहर की ताजी हवा को महसूसने के लिए मचल उठते हैं पर बाहर निकलने के लिए मदद की गुहार उन्हीं तक अन्सुनी वापस पहुंचती है.

लोकप्रिय इतिहास किसी टीवी सीरियल की तरह है. तो वैकल्पिक या लुप्त इतिहास की तुलना उन सीरियलों के अंतराल और आरंभ और अंत में आने वाले विज्ञापनों से की जा सकती है. जिन्हें हर कोई अंतराल के वक्त चैनल सर्फिंग करते हुए अपने रिमोटों की मदद से बारंबार बदल बदल कर, अपने चटखारेदार और मसालेदार सीरियलों के वापस लौटने का बेसब्री से इंतजार करता है, क्योंकि विज्ञापन सरीखे सभी सूचनाएं उनके लिए कोई मायने नहीं रखते.

काल की सतह पर बिखरे दृष्टिगत और दृश्यमान संकेतों और सूत्रों को एक सार्थक माला में पिरोना और सतह के नीचे गहराई में पैठकर अनुमान और अंतरज्ञान के बूते या मदद से लुप्त संकेतों और सूत्रों के अर्थ ढूंढना यही अंतर है, लोकप्रिय इतिहास और वैकल्पिक या लुप्त इतिहास में. लोक मानस भी उन्हीं तथ्यों और सूत्रों को सहजता से स्वीकारता है, जिसे देख छूकर समझा जाना जा सके. विस्मृतियों के गर्त मे उतरकर लुप्त सूत्रों या अदृश्य संकेतों की पुनर्रचना या उन्हें पुनर्जीवित करने के अथक प्रयास या कयावद हम में से कईयों को व्यर्थ की मूर्खता लग सकती है.

पर जब कालखंड के सुव्यवसित सुसज्जित विन्यास पर निगाह डालते है, तो अनायास ही हमारी नजर उस साज सज्जा या ऋंगार से भटककर उसके धूल धूसरित अनगिन छेदों से भरे आंचल पर पड़ती है, जिसे वो भरसक अपने पीछे छुपाए हुए है, पर परिवर्तन किसी बवंडर के झौंके सा उसे बार बार हमारी आंखों के सामने उड़ा ले आता है, जिसे अनदेखा किया नहीं जा सकता है. पूरी सजधज के नीचे से झांकता टाट का पैबंध किस तरह स्वीकार्य हो सकता है भला?

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज ५

हीरों के वंशज....

कोयले का
मूल्य भी
हम लोग
काफी कम
करके आंकते हैं
हीरे के पुरखे को
महज ठीकरा मान
दुत्कारते और
गलियाते हैं
....

उस मासूम
गरीब को
आखिर इतना
क्यों सताते हैं
खुद भी तो
साधारण और
जरा सी आंच पा
अंगार बन
पूरे संसार में
धुंए सा
बिखर जाते हैं
....

अगर
है दम
तो क्यों न
हम सब
भी
असहनीय
ताप सहकर
कोयले से हीरा
बन जाएं
....

और तब
बेचारा
कोयला
भी
जीवन भर
खुद को
अशुभ और
अभिश्प्त
मानने से
बच जाए
........
........


-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदि राग

जब भी हम किसी भी घटना परिस्थिति या व्यक्ति से रूबरू होते हैं, या उसका सामना करते हैं, या उनके बारे में कल्पनाएं करते हैं तो उस मामले की तह तक जाने के अनथक प्रयासों के पीछे चेतन जगत की अपेक्षा अचेतन जगत बहुधा हावी रहता है, क्योंकि किसी बात को वस्तुगत रूप से विद्यमान साक्ष्यों की रोशनी में जांचने परखने की बजाय, हम उसे अपने पूर्वाग्रहों पूर्वज्ञान अंतर्दृष्टि और अपने अनुभवों की कसौटियों पर कसकर जानना समझना ज्यादा बेहतर समझते हैं. हम सभी मंजिल पर पहुंचने के लिए अंजान राहों पर सफर करने की बजाय जाने पहचाने रास्तों पर चलना ज्यादा पसंद करते हैं, क्योंकि जोखिम उठाने की बजाए सुख सुविधाएं हमारी जिंदगियों में काफी अहम भूमिका अदा करती है.

हम सभी जीवन भर असुविधाजनक और असहज परिस्थितियों के गुंजलक भरी जकड़ से बचने की कश्मकश में कुछ इस कदर तल्लीन और मशगूल रहते हैं, और हर कीमत पर यथास्थिति को कायम रखने के असफल प्रयासों में फंसे रहते हैं, कि उसके लिए अपने अपने निजी क्षुद्र सुख शांति वेदी पर उन सभी जीवन मूल्यों की बलि देने से भी नहीं हिचकते, जो कि हमें पशुजगत से अलग करती हैं.

जिन जीवन मूल्यों को हम अपने क्षणिक क्षण भंगुर खुशियों के लिए तिलांजलि देने में एक पल के लिए भी नहीं झिझकते. उस वक्त हम यह बात भूल जाते हैं कि उन्हीं जीवन मूल्यों को सजाने संवारने और विकसित करने के लिए हमारे पुरखों ने अपने समक्ष खड़ी सभी विकट क्रूर और विषम परिस्थितियों को समझने निपटने और सुलझाने के लिए आसान सहज लोक सम्मत सुविधाजनक रास्तों का चुनाव करने की अपेक्षा संघर्षमय रास्तों पर चलकर आगे बढ़ना अधिक श्रेयस्कर समझा.

वे अपने आस पास के अपरिचित संसार को जानने और समझने की कोशिश में नित नए और अंजान राहों को खोजते और उनपर आगे निकलते चले गए. ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि अपने आस पास की अपरिचित रहस्यमयी दुनिया उनके भोले और मासूम दिलोदिमाग में ऐसी जादुई कौतुक पूर्ण संसार रच डालती थी कि अपने सामने आने वाली सभी चुनौतियां उन्हें किसी पहेली का हिस्सा जान पड़ती.

ऐसे ही कई सुलझे अनसुलझे पहेलियों से उनका संसार पटा रहता था. जिन्होंने उनमें जिज्ञासा कौतुहल जैसी भावनाओं को जन्म दिया और अपने आस पास की दुनिया को देखने के लिए नई दृष्टि विकसित करने की समझबूझ और अंतरज्ञान प्रदान की. इन सबने उन्हें अपने आस पास की दुनिया को जानने समझने और उसे समग्रता में अपनाने में न केवल उनकी सहायता की बल्कि उनके सीमित संसार और विश्वदृष्टि को विस्तार देकर सीमातीत संभावनाओं के आकाश और क्षितिज से उनका परिचय कराया.

चिर परिचित संसार के सीमित दायरे में रहकर अपनी चैन भरी जिंदगी बिताने की बजाए उन्होंने नई दुनियाओं को तलाशने के अपने मुहिम में अंजान और दुर्गम राहों का चुनाव बेहतर समझा. कठोर और कष्टप्रद परिस्थितियां भी उन्हें अपने दृढ़ निश्वय से न तो डिगा ही पाई, और न ही उनके मासूम उत्साह और उल्लास से भरे जीवनों में कोई पैठ बना पाई या सेंध लगाने में सफल हुई. उनका चुनाव उनके अदम्य साहस व जुझारूपन, अभूतपूर्व जिजीविषा, कर्मठता और कल्पनाशीलता को दर्शाती है, जो उस वक्त के बेहद कम साधनों संसाधनों का एक अदभुत और अनूठे ढंग से प्रयोग करने की ऐसी अनोखी दास्तां है, जिसकी मिसाल आज के अत्याधुनिक वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियों के दौर में कम ही देखने को मिलती है.

आज के पल पल बदलती दुनिया हमारे सपनों कल्पनाओं और आकांक्षाओं को एक नया आकार और विस्तार तो देती है. पर जब वैभवपूर्ण सुविधासंपन्न जीवन उन तमाम सपनों का एकमात्र लक्ष्य बन जाता है, तब वही विस्तार हमारी जिंदगियों को एक तंग संकुचित स्वर्ण जटित पिंजरे में तब्दील कर देता है. जिसका दरवाजा अगर किसी कारणवश खुला रह भी जाए या फिर दुर्भाग्यवश टूट जाए तो हम में साहस और शक्ति का इतना अधिक अभाव होता है कि उस वक्त जब कुछ नया और अनूठा करने या रचने का अवसर खुद चलकर हमारे सामने आकर खड़ा हो जाता है. पर उसे पहचानने और समझ बूझकर अपनाने की चेष्टा और प्रयास करने की अपेक्षा हम अपना समस्त साधन, शक्ति, ऊर्जा और सामर्थ्य उससे बचने और दूर हटने में झौंक देते हैं.

यह एक ऐसा विरोधाभास है, जिसका समाधान सामने मौजूद होने के बावजूद कारगर इसलिए नहीं है, क्योंकि जोखिम उठाने की कला जो हमारे पुरखों की अदभुत जिजीविषा और जीवटपन की अनूठी मिसाल है. जिसने उनके कठोर विकट और कष्टप्रद जीवन में रचनाधर्मिता और प्रयोगधर्मिता के ऐसे अदभुत प्रतिमान और आयाम जोड़ दिए हैं, जो भले ही हमारे आधुनिक मापदंडों और कसौटियों पर परखने से अनगढ़ प्रतीत हो. पर इन बातों पर अधिक गहराई से विचार करने से यही सच्चाई सामने आती है कि उन अनगढ़ उदाहरणों की पुनर्र्चना और पुनरावृतियों का सिलसिला अतीत के किसी अनाम पल में कहीं टूट कर बिखर चुका है. उन भूले बिसरे टूटे छूटे कड़ियो और सिरों को तलाशना और सहेजना एक असंभव खोज का नाम है.

हर घटना या परिस्थिति हमारे समक्ष हमारी रचनाधर्मिता सोच समझ और कल्पनाशीलता को एक नया आयाम और मुकाम देने का एक अभूतपूर्व अविस्मर्णीय और स्वर्णिम अवसर लेकर आती है. ताकि हम अपने पूर्वाग्रहों और पूर्व ज्ञान की खामियों को समझ, उनके मकड़जाल से आजाद हो, एक नई समझबूझ अंतर्दृष्टि से लैस होकर उन्हें मौजूदा तथ्यों की रोशनी में निष्पक्ष निष्कलंक और संवेदनशील दृष्टि से जांच परखकर उसे अतीत के तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त कर सकें.....

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज ४

आस्था के सुर

घास नहीं जानती है दबना
घास का स्वभाव है उगना और पनपना
पल पल रौंदे जाने के बावजूद
सगर्व हर पल
अपनी उपस्थिति दर्ज करना

घास नहीं है सिर्फ घास
घास है एक विश्वास/एक आस्था
अनास्था के कर्कश कटु कोलाहल में
आस्था का सहज मधुर स्वर

जिंदगी की संपूर्णता का संकल्प
मुर्झाने/सूख जाने
झड़ जाने/उखड़ जाने का
एकमात्र सही विकल्प
नारकीय दावाग्नि में गूंजता पल पल
हरीतिमा का धीमा धीमा मखमली संगीत
........
.........

पानी का मन भी तो....

पानी का मन भी तो
होता होगा सुस्ताने का
क्यों न अपने जीवन में
हम सभी पानी सा बहते चलें
....

जंगल क्यों बहाए बेबसी के आंसू
रात दिन छुप छुप कर
क्यों न हम सब मिल कर
उस के हंसने का ढेका ले ले
....

ये धरती भी जल जल कर
भस्म हो जाएगी एक दिन
क्यों न मरहम रख कर
आज ही उस का कलेजा ठंडा कर लें
....

बादल भी तो रोता होगा
देख तबाही और मौत का तांडव
देश निकाले का फरमान ले
आंसू गिराता बादल जो निकला था घर से
क्यों न आज फिर से उसे दोस्ती का पैगाम भेजें
.......
.......

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज ३

मरीचिकाओं का जंगल....

कल्पनाओं के सुंदर आकाश में
उड़ान भरता रहा मन पाखी
रमा रहा कल्पनालोक की रंगीनियो में
भूल गया अपनी वास्तविकता
अपना परिचय
अपनी अस्मिता
अपनी पहचान
....
भूल गया अपना परिवेश
अपना पंथ
अपना नीड़
उसे यह भी रहा न याद
कि यह सब
है महज भ्रमजाल
मरीचिका समान
वास्तविकता से काफी दूर
यह नहीं है उस की मंजिल
....
अपितु उसे दूर
बहुत दूर जाना है
....
कल्पनाओं की रंगीन
चकाचौंध से परिपूर्ण
इन्द्रधनुषी दुनिया
से निकल कर
जब यथार्थ की कठोर धरती से
जब वह उड़ता उड़ता टकराया
....
होके बेहाल व्यथित तब
समझ में उसकी यह आया
उड़ान भरते समय
याद न रही
अपनी वास्तविकता
कि
उस की मंजिल धरती है
वास्तविक यथार्थ और कठोर
न कि कल्पना का सतरंगा आकाश
....
नहीं याद रहा
अपनी गति
अपनी सीमा
अपनी क्षमता
अपनी योग्यता
....
दूसरो के मापदंड पर
खरा उतरने हेतु
उल्लंघन कर अपनी सीमा का
भुलाया अपना परिवेश
रंगकर उन्हीं के रंग में
....
बाद में प्रकट हुआ ये भेद
कि उस में वो सामर्थ्य ही नहीं
जिस के बूते पर चला था
मुकाबला करने
....
व्यर्थ ही मन पाखी
मृग सदृश
भटकता रहा बरसों
मरीचिकाओं के जंगल में
कस्तूरी की तलाश में
....
जब कि सुलभ था उस को
छोटा ही सही
किंतु अपना आकाश
जहां वह
कर सकता था विचरण
स्वछंदतापूर्ण
जहां तक के उड़ान की
अनुमति देता उस का सामर्थ्य
....
पर उस पर भी
अब अधिकार न रहा उस का
मरीचिकाओं के जंगल में
भटकता रहा जीवन भर
शायद वही बन कर रह गई थी
उस की एक मात्र नियति
........
........

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज २

जंगल गाथा

जंगल मौन
बरसों से
अपना अपमान पीड़ा
पी/जी रहे है
....
उनका हाहाकार ........
लूट खसोट और अत्याचारों की
दारूण गाथा
विलाप गीत में बदल चुकी है
रूंधे गले और सूखी आखों से
तकते है अपने आतताईयों के चेहरे....
मौन रूदन और आर्तनाद से
गूंजता है समूचा जंगल
........
हर आहट पर
ठिठके/ सहमे
गतिहीनता के भंवर में छ्टपटाते
मुक्ति की मूक याचना में लीन
....
आकाश की ओर उठाते हैं नयन
षडयंत्रो/ कुचक्रों के विनाश की कामना में
स्वयं में डूब रचते हैं वे
अबूझ जंगल राग
....
जिसकी अनुगूंज ब्रह्मांड तक हिला सकती है
अपनी खामोशियों में समेटे हैं वे
अजीब सी एक उदास सिम्फ़नी
........
उनका बीहड़ी औघड़ सौंदर्य
चौंधियाता है पर्यटकी आखों को
पल भर के लिए सही
जो जाने/अन्जाने
झौंक देते है निरीह निहत्थे जंगल को
निरर्थक विवादों के चक्रव्यूह में
अपमानित और लहुलुहान होने को
....
जो प्रतिशोध/प्रतिघात की ज्वाला में
घिरे होने के बावजूद भी
प्रतिकार मे नहीं उठाता है कदम
....
न ही देता है हमें कोई अभिशाप
वरन लीन रहता है सामर्थ्य भर आशीषें उडेंलने
इस अग्निदीप्त धरा पर
....
साकार करता/रचता है हरियाली का स्वप्न !
........

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज

बांसुरी वादक....

शायद तुम्हें लगे कि
डरा धमकाकर
मार डालोगे मुझे
और मुझ जैसे लोगों को
और
जीवन भर
चैन की बांसुरी बजाओगे
....

पर इतनी आसानी से
हम से अपना
पिंड न छुड़ा पाओगे
हम फिर से लेंगे जन्म
बनकर हजार आंखें
जो रखेंगें नजर
तुम्हारी एक एक हरकत पर
....

जो सोचा भी कभी
बचकर निकल भागने का
तो हजारों हाथ मिलकर
देंगें पटखनी
....

भागने की जगह तक
पड़ जाएगी कम तुम्हें
और भीड़ आएगी निकलकर
अपने अपने घरों से
और कुचल डालेगी
तुम जैसों को चुटकियों में
........

रेत पर लिखी दास्तान....

रेत पर लिखी सदियों तक
हमारी दास्तान तुमने
मनचाही मनमाफ़िक
कि मिटा सको जब चाहो
और गढ़ लो कोई भी नया झूठ
हर बार
हमें बहलाने फुसलाने को
पर अबकि बार
कामयाब न होगा
तुम्हारा कोई भी तीर या तुक्का
जब हम
लिखेंगे अपनी दास्तान
चट्टानों के दिलों पर
........
-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिवासी आवाज

आदिवासी समाज सदियों से तथाकथित सभ्य समाजों से उपेक्षित एक अदृश्य दुनिया के रूप में विश्व के विशालकाय मंच के किसी अंधेरे कोने में मौन खड़ा उस पल की प्रतीक्षा कर रहा है जब संपूर्ण विश्व की दृष्टि उस पर फोकस या केंद्रित होगी और उसके कार्यों की सराहना होगी. पर अफसोस वह गलत समय में गलत जगह पर खड़ा अपनी जगह तलाशने की असफल कोशिशों में लगा हुआ है. मंच पर अपनी जगह और जमीन तैयार करने के लिए आदिवासी समाज को भी उन्हीं औजारों और हथियारों को अपनाना होगा. जिनका प्रयोग करके अन्य समाज उस जगह पर पहुंचे हुए हैं.

पर दुर्भाग्यवश हजारों सालों से सभ्य समाजों से कटे रहने की वजह से और निरंतर उनसे शोषित होते रहने की वजह से आज हमारा समाज इस स्थिति में ही नहीं है, कि उनके सामने खड़ा रहकर अपनी उपस्थिति तक दर्ज करा सके. पर अब धुंधलके से बाहर निकलने का वक्त आ पहुंचा है और आवश्यकता इस बात कि है कि उस समाज के सदस्य होने के नाते हम सबका यह फर्ज बनता है कि अगर हमें अवसर मिलता है तो उसका हम भरपूर फायदा उठाएं और अपने समाज को विश्व के मंच पर उसकी सही और सम्मानजनक स्थान पर पहुंचाने में एक दूसरे की मदद और उत्साहवर्धन करें.

यही नहीं आवश्यकता इस बात की भी है कि इस कार्य को एक आहुति मान इसके लिए अपना तन मन और धन यहां तक कि अपना जीवन तक न्यौछावर करने के लिए भी तत्पर रहें क्योंकि अगर हम यह अवसर चूक जाते हैं तो हो सकता है कि आने वाले समयों में आदिवासी समाजों का नामोंनिशान तक मिट जाए और हमारे सामने अस्त्तित्व का संकट कुछ इस कदर गहरा जाए कि हम खुद को समय के आईने में पहचान भी नहीं सके और सिर्फ दूसरों द्वारा थोपी गई पहचानों पर खरा उतरने के लिए जीवन भर संघर्ष करते रहें और खुद की अपनी पहचान को जान समझकर उसे विकसित और किसी धरोहर के रूप में संवारने से चूक जाएं या फिर उसे किसी भूले बिसरे सपने की तरह भुलाकर जिंदगी के सफर में आगे बढ़ जाएं.

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

दूसरों के आईने में आदिवासी समाज

दुनिया के रंगमंच पर सभी समाजों का प्रतिनिधित्व नजर आता है, पर आज भी आदिवासी समाजों की आधी अधूरी तस्वीर ही उपलब्ध है जो कि उनकी सच्चाईयों के साथ पूरी तरह से न्याय करने में असमर्थ है. उन आधी अधूरी तस्वीरों के आधार पर उकेरी गई छवि आदिवासी समाज को फायदा पहुंचाने की बजाय ज्यादा नुक्सान ही पहुंचाती है. लोकमानस में मौजूद अर्धसत्यों के भंवरजाल में आदिवासी समाजों की सच्चाईयां विलीन हो जाती हैं और लोक चेतना में से बडी ही खामोशी से ओझल भी हो जाती है.

जब कभी भी हम दूसरों के दर्पणों में या आईने में हम अपनी छवि या तस्वीर देखने का प्रयत्न करते है तो वे हमेशा ही हमें धूमिल, कुरूप, कालिमायुक्त और बेहद ही डरावने दिखाई देते हैं, जिन्होंने हमेशा हमें जंगली बर्बर और असभ्य समाज के रूप में ही देखा है. उन खौफनाक छवियों का हम पर इतना गहरा आतंक छाया होता है कि हम दुबारा पलटकर उन्हें देखना गवारा नहीं करते. हम अपनी मलिन छवियों की भयंकरता से आतंकित और त्रस्त होकर दर्पणों में अपनी छवियों को निहारने से भी गुरेज करने लगते हैं. हमें ऎसा लगता है कि शायद हम में ही कोई कमी है वर्ना बाकी सब कुछ तो उस दर्पण में साफ स्पष्ट नजर आता है.

पर हम इस बात को भूल जाते हैं कि दूसरों का दर्पण, उनके सोच, पूर्वाग्रहों, जीवनमूल्यों का सम्मिश्रण होता है जो कि उनके किसी खास सोच या बात को दर्शाने मात्र के लिए ही प्रयुक्त होता है. ऎसा दर्पण खुद से भिन्न, अलग और नई सच्चाईयों को प्रतिबिम्बित करने के लिए डिजाईन ही नहीं हुआ है. अपनी खास सीमित दायरे के परे ऎसा दर्पण अगर कुछ भी दिखाने का प्रयास करेगा तो वो धुंधला, मलिन और कालिमायुक्त ही नजर आएगा.

आवश्यकता इस बात की है कि हम उन कमियों और पूर्वाग्रहों के मायाजाल से बाहर निकलें और अपनी छवियों को देखने के लिए नई अंतर्दृष्टियों से युक्त नए दर्पणों का निर्माण करें जो कि हमारी अपनी कसौटियों और मापदंडों को दर्शाता है ताकि हम दूसरों के द्वारा तय किए गए मापदंडों और पैमानों पर खरा उतरने की कोशिशों में अपनी तमाम जिन्दगी न्यौंछावर करने की अपेक्षा अपने मापदंडों और प्रतिमानों का निर्माण और विकास करें ताकि आने वाले समयों में हमारा समाज अपनी छवि दूसरों के द्वारा उधार में दिए गए दर्पणों में देखने की जिल्लत और अपमान से बच जाए.

हमारा आदिवासी समाज अपनी धूमिल और मलिन अपमानजनक छवियों के आतंक और यन्त्रणा से उबरकर अपने मापदंडों और प्रतिमानों पर खरी उतरती सम्मानजनक छवियों पर गर्वान्वित अनुभव करने के अवसरों को समझना और ढूंढना सीखें और दुनिया के सामने अपनी विकृतिपूर्ण असंगतियों से भरी कुरूप छवियों की बजाए एक सही तस्वीर प्रस्तुत कर सकें.

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

अरण्य गाथा

प्राचीन काल से नदियों की उर्वर घाटियां और सघन दुर्गम वनाच्छादित प्रदेश आदिम समाजों का उदगम स्थली रही हैं. वहीं पर वे आदिम बस्तियां पनपी और विकसित हुई. पर नदी घाटी सभ्यता और बीहड़ वनों में रहने वाले आदिम समाजों की विकास यात्रा काफी हद तक अलग और एक दूसरे से भिन्न भी रही हैं. एक तरफ जहां नदी घाटी सभ्यता विकास के उच्चतम शिखर पर आसीन है वहीं पर आज भी उन वनों में रहने वाले लोग सभ्यता के विकास यात्रा में खुद की गणना और पहचान एक सहयोगी या भागीदार के रूप में नहीं वरन उसके द्वारा सह्स्त्राब्दियों से छले और शोषित, हाशिए के भी परे धकियाए गए लोगों के रूप में करते हैं जो कि आज भी अपने पुरखों के द्वारा झेले गए अपमान उपेक्षा और अवहेलना के दंश के अभिशाप का घूंट को पीने को विवश हैं.

यह कमोबेश दुनिया के कोने कोने में बसने वाले उन आदिम समाजों के वंशजों की कहानी है जिन्होने प्रकृति की गोद में आश्रय लिया और उसे एक संरक्षक के रूप में पूज्य और आराध्य मानकर उसके साथ एक सामांजस्यपूर्ण सदभावना और सौहार्द का संबंध स्थापित किया और प्रकृति की संपूर्ण छ्टा को दैवीय प्रसाद और आशीर्वाद मान अपने जीवन को धन्य समझा. प्रकृति पूजकों का वो आदिम समाज को भी अपना आत्मीय संगी और अपने परिवारों और समाजों का एक अभिन्न हिस्सा तो मानता था जिससे वो वक्त पड़ने पर परिवार के सदस्य की तरह लड़ झगड़ और रूठ सकता था. पर उससे किसी भी कीमत पर एक शत्रु की तरह व्यवहार नहीं कर सकता था. प्रकृति का मंद मधुर संगीत उसके मन प्राण और सांसों में कुछ इस कदर रच बस गया था कि उसके बगैर जीने की कल्पना मात्र से वो सिहर उठता था.

पर सभ्यता के विकास के रथ का पहिया जब जब उन आदिम समाजों के समीप से गुजरा तो अपने पीछे तबाही और विध्वंस की असंख्य कहानियां छोड़ गया. जीवन के हर क्षेत्र में आए अभूतपूर्व परिवर्तनों और तकनीकी विकास के अहंकार से सराबोर मानव प्रकृति पर अपना आधिपत्य और वर्चस्व स्थापित करके उसे अपना गुलाम बनाने के एक सूत्रीय मिशन में जुट गया और मात्र एक दो सदी के भीतर ही सभी प्राकृतिक संसाधनों को बेदर्दी से लूट खसोटकर आज स्वयं तबाही के कगार पर आ खड़ा हुआ है जहां से वापसी लगभग असंभव ही प्रतीत हो रही है. सभ्यता के विकास ने जहां हमारे जीवन के हर क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रांति ला दी है और हमारे जीवन को कुछ और सरल बना दिया है और किसी वरदान से कम नहीं लगता, वहीं ये समूची मानवता के लिए अभिशाप भी साबित हुआ है.

अगर हम इस समस्या को विश्व के परिपेक्ष्य में देखें तो यह बात पूरी तरह से चरितार्थ होती है कि विकास की अंधाधुंध होड़ ने मानवीय मूल्यों जैसे आपसी मेलप्रेम सहयोग समानता भाईचारा और एकता जैसे मूल्यों को ठुकराकर ईरषया डाह लालच षड्यन्त्र झूठ छ्ल प्रपंच जैसे मूल्यों को बढ़ावा दिया जिसमें लोगों को अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए दूसरों को गुलाम और बंधुआ मजदूरों की तरह इस्तेमाल करने से भी गुरेज नहीं होता. जैसा कि अफ़्रीका, आस्ट्रेलिया, अमेरिका और अन्य देशों में हुआ जहां पर विकास की बढ़ती होड़ ने प्राकृतिक संसाधनों और लोगों का जमकर शोषण किया और उन लोगों को दोयम और उससे भी निचले स्तर का इंसान बना दिया जो आज भी अपने पुरखों का सा कठिन जीवन बिताने को विवश हैं.

आज विश्व में गहराता उर्जा संकट ग्लोबल वार्मिंग और दूसरे इससे संबंधित अन्य समस्याएं हमारे सामने विद्यमान हैं जिनका अगर जल्द समाधान न खोजा गया तो काफी देर हो सकती है. जंगलों के अंधाधुंध कटने के कारण ओजोन का बढ़ता छेद और ग्रीन हाउस के बढ़ते प्रभाव के कारण मौसम में बढ़ते बदलाव कहीं पर बाढ़ तो कहीं सूखे की समस्या ग्लेशियरों का पिघलना और नदियों का जलस्तर का बढ़ना और पेयजल की कमी आदि मानव निर्मित समस्याओं की वजह से विनाश का बटन दबने में अब बिल्कुल भी देरी नहीं है.

आवश्यकता इस बात की है कि अत्याचारों से त्रस्त या प्रकृति का आर्तनाद को हम खतरे की घंटी समझे. ताकि हम प्रकृति के साथ साथ उन लोगों का भी सम्मान करना सीखें जिन्होंने हजारों सालों से प्रकृति के निकट रहने के बाद भी उसका अनावश्यक दोहन नहीं किया और उसे किसी अनमोल थाती की तरह सहेज संवार कर विकसित समाजों के सामने एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया जो प्रशंसा और इनाम की हकदार है न कि अपमान अवहेलना और तिरस्कार जैसा कि उन अभागों के हिस्से हमेशा ही आया है.

तो हम सबको मिलकर यह तय करना चाहिए कि समय के इस मोड़ पर दूसरों का अंधानुकरण करके प्रकृति और उसके साथ साथ खुद भी विनाश के गर्त में ढकेल देंगे या फिर सभी अपनी अपनी जिम्मेवारी और दायित्वों को समझकर उपरोक्त समस्याओं को छोटे छोटे स्तर पर व्यक्तिगत रूप से और सामूहिक रूप से उन्हें सुलझाने के अपने प्रयासों को अपना पहला और अंतिम कर्तव्यों के रूप में देखना आरंभ करेंगे. आशा है कि इस सबमें हमारा यह छोटा सा प्रयास एक मजबूत कड़ी साबित होगा.

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

खामोश फ़लक

खामोश फ़लक की दुनिया मे आप सबका स्वागत है.

सम्मोहक बाहरी शक्तियों का दबाव और परिवर्तन की आंधियों के भंवरजाल मे फंसा आदिवासी समाज आज अपनी पहचान तक को खो चुका है. विकसित समृद्धशाली और ताकतवर बाहरी दुनिया की चकाचौंध से घबराया आदिवासी समाज दिशाहीन और दिग्भ्रमित सा अपने सामने घटने वाली घटनाओं को किसी मूक दर्शक सा ताक भर रहा है. उसके बारे में आज दुनिया बहस कर रही है पर आदिवासी समाज उन सभी मंत्रणाओं को किसी अदृश्य सीमारेखा के बाहर से देख भर रहा है और उसमें शामिल होकर अपनी बात रखने तक का माद्दा और समझबूझ अभी अविकसित और बीजाकार रूप में है इसलिये अकसर वह उन सारी सभाओं समारोहों गोष्ठियों के समापन पर वह ठगा सा ही महसूस करता है. दूसरों के लिये वो कोई कौतुक का विषय भर है जिससे अपना मनोरंजन तो किया जा सकता है. पर बाहर से फीकी उदास और अन्धेरी नजर आने वाली उन जिन्दगियों में झांक कर उनकी समस्याओं को जानने समझने का साहस कोई बिरले ही कर पाता है.

आज का तथाकथित मूख्यधारा समाज बाजारवाद उपभोक्तावाद के गलाकाट प्रतियोगितावाद के पतनशील मूल्यों से उपजे जीवन दर्शन पर आधारित है. ऎसे समाजों में छाई अलगाव अकेलापन अवसाद घुटन टूटन बिखराव और नैराश्य की भावनाएं उसी में मौजूद विसंगतियों और विरोधाभासों का एक विडम्बनापूर्ण प्रतिबिम्ब है. यही अब मूख्यधारा समाज के हाथों में आदिवासी समाजों को भी देखने परखने का एक विश्वसनीय प्रतिमान और औजार बन चुका है. हालांकि आदिवासी समाजों की सच्चाई इन तथाकथित मूख्यधारा समाजों से कई प्रकाशवर्ष दूर है. आज के पतनोमुख और अधोगामी समाजों के सम्मुख आदिवासी समाजों के जीवनमूल्य और जीवनदर्शन किसी दैदीप्यमान प्रकाश स्तम्भ की तरह हैं जो विनाश के कगार पर बैठे हुए संसार को आज भी बचाने और संरक्षित रखने का मूलमन्त्र देने मे सक्षम हैं.

यही कारण है कि ये बात आज संसार के काफी देशों में बड़ी ही शिद्दत से महसूसी और स्वीकारी जा रही है जहां पर ऎसे समाजों को बचाए रखने की मुहिम तक छिड़ चुकी है ताकि उनके साथ उनके अनमोल परम्परागत ज्ञान का खजाना कहीं हमेशा के लिए विस्मृति के अन्धकूप मे विलीन न हो जाए. पर दुख इस बात का है कि अक्सर अपने देश में आदिवासी समाजों के हिस्से शोषण दमन तिरस्कार अवहेलना उदासीनता ही आई है जहां उसे पल पल अपमान का घून्ट पीना पडता है और अपनी पहचान की वजह से जिन्दगी भर शर्मिंदगी तक उठानी पड़ती है और उसके साथ दोयम दर्जे या उससे भी निचले स्तर के नागरिक के रूप में व्यवहार किया जाता है. इस तरह एक आदिवासी अपने ही देश मे अजनबी या बाहरी बनकर जीने को अभिशप्त है जहां पर हर जगह उसे सन्देह की नजर से देखा जाता है.

आज आदिवासी समस्याओं पर एक नई दृष्टि विकसित करने की जरूरत है ताकि उनका नए परिपेक्ष्य मे पुनरावलोकन किया जा सके. समस्याओं की नई रीति से जांच पड़ताल से मिली नई अंतर्दृष्टियों की रोशनी में समाधान खोजने की प्रक्रिया विकसित हो और बाहरी दबाव से खन्डित समाज विकास के नाम पर हुए विस्थापन सरीखे कई समस्याओं से जूझने के लिए शक्ति साहस और सामर्थ्य बटोर सके और नवनिर्माण की राह पर आगे बढ़ सके और दुनिया के सम्मुख अपनी अनूठी छवि प्रस्तुत कर सके.

इन्हीं शुभकामनाओं के साथ आरम्भ हो रहा है आत्मसाक्षात्कार और आत्ममन्थन का ये एक नया सफर. उम्मीद है कि आप सभी लोग इस यात्रा मे साथ मिलके आगे बढ़ेंगे.

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-