आदिम गूंज ५

हीरों के वंशज....

कोयले का
मूल्य भी
हम लोग
काफी कम
करके आंकते हैं
हीरे के पुरखे को
महज ठीकरा मान
दुत्कारते और
गलियाते हैं
....

उस मासूम
गरीब को
आखिर इतना
क्यों सताते हैं
खुद भी तो
साधारण और
जरा सी आंच पा
अंगार बन
पूरे संसार में
धुंए सा
बिखर जाते हैं
....

अगर
है दम
तो क्यों न
हम सब
भी
असहनीय
ताप सहकर
कोयले से हीरा
बन जाएं
....

और तब
बेचारा
कोयला
भी
जीवन भर
खुद को
अशुभ और
अभिश्प्त
मानने से
बच जाए
........
........


-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदि राग

जब भी हम किसी भी घटना परिस्थिति या व्यक्ति से रूबरू होते हैं, या उसका सामना करते हैं, या उनके बारे में कल्पनाएं करते हैं तो उस मामले की तह तक जाने के अनथक प्रयासों के पीछे चेतन जगत की अपेक्षा अचेतन जगत बहुधा हावी रहता है, क्योंकि किसी बात को वस्तुगत रूप से विद्यमान साक्ष्यों की रोशनी में जांचने परखने की बजाय, हम उसे अपने पूर्वाग्रहों पूर्वज्ञान अंतर्दृष्टि और अपने अनुभवों की कसौटियों पर कसकर जानना समझना ज्यादा बेहतर समझते हैं. हम सभी मंजिल पर पहुंचने के लिए अंजान राहों पर सफर करने की बजाय जाने पहचाने रास्तों पर चलना ज्यादा पसंद करते हैं, क्योंकि जोखिम उठाने की बजाए सुख सुविधाएं हमारी जिंदगियों में काफी अहम भूमिका अदा करती है.

हम सभी जीवन भर असुविधाजनक और असहज परिस्थितियों के गुंजलक भरी जकड़ से बचने की कश्मकश में कुछ इस कदर तल्लीन और मशगूल रहते हैं, और हर कीमत पर यथास्थिति को कायम रखने के असफल प्रयासों में फंसे रहते हैं, कि उसके लिए अपने अपने निजी क्षुद्र सुख शांति वेदी पर उन सभी जीवन मूल्यों की बलि देने से भी नहीं हिचकते, जो कि हमें पशुजगत से अलग करती हैं.

जिन जीवन मूल्यों को हम अपने क्षणिक क्षण भंगुर खुशियों के लिए तिलांजलि देने में एक पल के लिए भी नहीं झिझकते. उस वक्त हम यह बात भूल जाते हैं कि उन्हीं जीवन मूल्यों को सजाने संवारने और विकसित करने के लिए हमारे पुरखों ने अपने समक्ष खड़ी सभी विकट क्रूर और विषम परिस्थितियों को समझने निपटने और सुलझाने के लिए आसान सहज लोक सम्मत सुविधाजनक रास्तों का चुनाव करने की अपेक्षा संघर्षमय रास्तों पर चलकर आगे बढ़ना अधिक श्रेयस्कर समझा.

वे अपने आस पास के अपरिचित संसार को जानने और समझने की कोशिश में नित नए और अंजान राहों को खोजते और उनपर आगे निकलते चले गए. ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि अपने आस पास की अपरिचित रहस्यमयी दुनिया उनके भोले और मासूम दिलोदिमाग में ऐसी जादुई कौतुक पूर्ण संसार रच डालती थी कि अपने सामने आने वाली सभी चुनौतियां उन्हें किसी पहेली का हिस्सा जान पड़ती.

ऐसे ही कई सुलझे अनसुलझे पहेलियों से उनका संसार पटा रहता था. जिन्होंने उनमें जिज्ञासा कौतुहल जैसी भावनाओं को जन्म दिया और अपने आस पास की दुनिया को देखने के लिए नई दृष्टि विकसित करने की समझबूझ और अंतरज्ञान प्रदान की. इन सबने उन्हें अपने आस पास की दुनिया को जानने समझने और उसे समग्रता में अपनाने में न केवल उनकी सहायता की बल्कि उनके सीमित संसार और विश्वदृष्टि को विस्तार देकर सीमातीत संभावनाओं के आकाश और क्षितिज से उनका परिचय कराया.

चिर परिचित संसार के सीमित दायरे में रहकर अपनी चैन भरी जिंदगी बिताने की बजाए उन्होंने नई दुनियाओं को तलाशने के अपने मुहिम में अंजान और दुर्गम राहों का चुनाव बेहतर समझा. कठोर और कष्टप्रद परिस्थितियां भी उन्हें अपने दृढ़ निश्वय से न तो डिगा ही पाई, और न ही उनके मासूम उत्साह और उल्लास से भरे जीवनों में कोई पैठ बना पाई या सेंध लगाने में सफल हुई. उनका चुनाव उनके अदम्य साहस व जुझारूपन, अभूतपूर्व जिजीविषा, कर्मठता और कल्पनाशीलता को दर्शाती है, जो उस वक्त के बेहद कम साधनों संसाधनों का एक अदभुत और अनूठे ढंग से प्रयोग करने की ऐसी अनोखी दास्तां है, जिसकी मिसाल आज के अत्याधुनिक वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियों के दौर में कम ही देखने को मिलती है.

आज के पल पल बदलती दुनिया हमारे सपनों कल्पनाओं और आकांक्षाओं को एक नया आकार और विस्तार तो देती है. पर जब वैभवपूर्ण सुविधासंपन्न जीवन उन तमाम सपनों का एकमात्र लक्ष्य बन जाता है, तब वही विस्तार हमारी जिंदगियों को एक तंग संकुचित स्वर्ण जटित पिंजरे में तब्दील कर देता है. जिसका दरवाजा अगर किसी कारणवश खुला रह भी जाए या फिर दुर्भाग्यवश टूट जाए तो हम में साहस और शक्ति का इतना अधिक अभाव होता है कि उस वक्त जब कुछ नया और अनूठा करने या रचने का अवसर खुद चलकर हमारे सामने आकर खड़ा हो जाता है. पर उसे पहचानने और समझ बूझकर अपनाने की चेष्टा और प्रयास करने की अपेक्षा हम अपना समस्त साधन, शक्ति, ऊर्जा और सामर्थ्य उससे बचने और दूर हटने में झौंक देते हैं.

यह एक ऐसा विरोधाभास है, जिसका समाधान सामने मौजूद होने के बावजूद कारगर इसलिए नहीं है, क्योंकि जोखिम उठाने की कला जो हमारे पुरखों की अदभुत जिजीविषा और जीवटपन की अनूठी मिसाल है. जिसने उनके कठोर विकट और कष्टप्रद जीवन में रचनाधर्मिता और प्रयोगधर्मिता के ऐसे अदभुत प्रतिमान और आयाम जोड़ दिए हैं, जो भले ही हमारे आधुनिक मापदंडों और कसौटियों पर परखने से अनगढ़ प्रतीत हो. पर इन बातों पर अधिक गहराई से विचार करने से यही सच्चाई सामने आती है कि उन अनगढ़ उदाहरणों की पुनर्र्चना और पुनरावृतियों का सिलसिला अतीत के किसी अनाम पल में कहीं टूट कर बिखर चुका है. उन भूले बिसरे टूटे छूटे कड़ियो और सिरों को तलाशना और सहेजना एक असंभव खोज का नाम है.

हर घटना या परिस्थिति हमारे समक्ष हमारी रचनाधर्मिता सोच समझ और कल्पनाशीलता को एक नया आयाम और मुकाम देने का एक अभूतपूर्व अविस्मर्णीय और स्वर्णिम अवसर लेकर आती है. ताकि हम अपने पूर्वाग्रहों और पूर्व ज्ञान की खामियों को समझ, उनके मकड़जाल से आजाद हो, एक नई समझबूझ अंतर्दृष्टि से लैस होकर उन्हें मौजूदा तथ्यों की रोशनी में निष्पक्ष निष्कलंक और संवेदनशील दृष्टि से जांच परखकर उसे अतीत के तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त कर सकें.....

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज ४

आस्था के सुर

घास नहीं जानती है दबना
घास का स्वभाव है उगना और पनपना
पल पल रौंदे जाने के बावजूद
सगर्व हर पल
अपनी उपस्थिति दर्ज करना

घास नहीं है सिर्फ घास
घास है एक विश्वास/एक आस्था
अनास्था के कर्कश कटु कोलाहल में
आस्था का सहज मधुर स्वर

जिंदगी की संपूर्णता का संकल्प
मुर्झाने/सूख जाने
झड़ जाने/उखड़ जाने का
एकमात्र सही विकल्प
नारकीय दावाग्नि में गूंजता पल पल
हरीतिमा का धीमा धीमा मखमली संगीत
........
.........

पानी का मन भी तो....

पानी का मन भी तो
होता होगा सुस्ताने का
क्यों न अपने जीवन में
हम सभी पानी सा बहते चलें
....

जंगल क्यों बहाए बेबसी के आंसू
रात दिन छुप छुप कर
क्यों न हम सब मिल कर
उस के हंसने का ढेका ले ले
....

ये धरती भी जल जल कर
भस्म हो जाएगी एक दिन
क्यों न मरहम रख कर
आज ही उस का कलेजा ठंडा कर लें
....

बादल भी तो रोता होगा
देख तबाही और मौत का तांडव
देश निकाले का फरमान ले
आंसू गिराता बादल जो निकला था घर से
क्यों न आज फिर से उसे दोस्ती का पैगाम भेजें
.......
.......

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज ३

मरीचिकाओं का जंगल....

कल्पनाओं के सुंदर आकाश में
उड़ान भरता रहा मन पाखी
रमा रहा कल्पनालोक की रंगीनियो में
भूल गया अपनी वास्तविकता
अपना परिचय
अपनी अस्मिता
अपनी पहचान
....
भूल गया अपना परिवेश
अपना पंथ
अपना नीड़
उसे यह भी रहा न याद
कि यह सब
है महज भ्रमजाल
मरीचिका समान
वास्तविकता से काफी दूर
यह नहीं है उस की मंजिल
....
अपितु उसे दूर
बहुत दूर जाना है
....
कल्पनाओं की रंगीन
चकाचौंध से परिपूर्ण
इन्द्रधनुषी दुनिया
से निकल कर
जब यथार्थ की कठोर धरती से
जब वह उड़ता उड़ता टकराया
....
होके बेहाल व्यथित तब
समझ में उसकी यह आया
उड़ान भरते समय
याद न रही
अपनी वास्तविकता
कि
उस की मंजिल धरती है
वास्तविक यथार्थ और कठोर
न कि कल्पना का सतरंगा आकाश
....
नहीं याद रहा
अपनी गति
अपनी सीमा
अपनी क्षमता
अपनी योग्यता
....
दूसरो के मापदंड पर
खरा उतरने हेतु
उल्लंघन कर अपनी सीमा का
भुलाया अपना परिवेश
रंगकर उन्हीं के रंग में
....
बाद में प्रकट हुआ ये भेद
कि उस में वो सामर्थ्य ही नहीं
जिस के बूते पर चला था
मुकाबला करने
....
व्यर्थ ही मन पाखी
मृग सदृश
भटकता रहा बरसों
मरीचिकाओं के जंगल में
कस्तूरी की तलाश में
....
जब कि सुलभ था उस को
छोटा ही सही
किंतु अपना आकाश
जहां वह
कर सकता था विचरण
स्वछंदतापूर्ण
जहां तक के उड़ान की
अनुमति देता उस का सामर्थ्य
....
पर उस पर भी
अब अधिकार न रहा उस का
मरीचिकाओं के जंगल में
भटकता रहा जीवन भर
शायद वही बन कर रह गई थी
उस की एक मात्र नियति
........
........

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-