आदिम गूंज ३१

 
हमारे अविरल बहते आंसू...
 
 
हमारे अविरल बहते आंसू
बनकर टिमटिमाएंगे
घने जंगलों में
जुगनुओं की कतार बनकर
हमारे पसीने की एक एक बूंद
जगमगाएगी नभ में सदा
आकाशगंगा बनकर
हमारे पुरखों के गीत
गूजेंगे घने जंगलों के
हर कोने में
कोई जादुई तान बनकर
और लहराएंगे हमारी मनभित्तियों पर
कोई अबूझ स्वप्नलहरी बनकर
हमारा अस्फ़ुट विलाप
गूंजेगा समूचे संसार में
मांदल की ताल पर थिरकती
कोई अनसुनी संगीतलहरी बनकर
हम जिएंगे साथ-साथ
इस नारकीय अंधकूप में
एक दूसरे का हाथ थामे
अपने सपनों और अपनों के लिए
रोशनी का जंगल बनकर
हमारे दर्द से बोझल
दबे कुचले अस्फ़ुट शब्द
लौटेंगे किसी दिन दुनिया में
बवंडर और तड़ित की
भयंकर गुंजार बनकर
...
...
-उज्जवला ज्योति तिग्गा-