आदिम गूंज १८

शिकारी दल अब आते हैं

शिकारी दल अब आते हैं
खरगोशों का रूप धरे
जंगलो में/ और
वहां रहने वाले
शेर भालू और हाथी को
अपनी सभाओं में बुलवाकर
उन्हें पटाकर
पट्टी पढ़ाकर
समझाया/ फ़ुसलाया
कि/ आखिर औरों की तरह
तरक्की उनका भी तो
जन्मसिद्ध अधिकार है/ कि
क्या वे किसी से कम है/ कि
दुनिया में भले न हो
किसी को भी उनका ख्याल/ पर
वे तो सदा से है रहनुमा
उन्हीं के शुभचिंतक और सलाहकार
लोग तो जलते हैं
कुछ भी कहेंगे ही/ पर
इस सब से डरकर भला
वे क्या अपना काम तक छोड़ देंगे
...

ये तो सेवा की सच्ची लगन ही
खींच लाई है उन्हें
इन दुर्गम बीहड़ जंगलों में
वर्ना कमी थी उन्हें
क्या काम धंधो की
...

विकास के नए माडल्स के रूप में
दिखाते हैं सब्जबाग
कि कैसे पुराने जर्जर जंगल
का भी हो सकता है कायाकल्प
कि एक कोने में पड़े
सुनसान उपेक्षित जंगल भी
बन सकते है
विश्व स्तरीय वन्य उद्यान
जहां पर होगी
विश्व स्तरीय सुविधाओं की टीमटाम
और रहेगी विदेशी पर्यटकों की रेल पेल
और कि/ कैसे घर बैठे खाएगी
शेर हाथी और भालू की
अनगिन पुश्तें
...

पर शर्त बस इतनी/ कि
छोड़ देना होगा उन्हें
जंगल में राज करने का मोह
और ढूंढ लेना होगा उन्हें
कोई नया ठौर या ठिकाना/ कि
नहीं हैं उनके पास
नए और उन्न्त कौशल का भंडार
जिनके बिना नहीं चल पाता/ आजकल
कोई भी कार्याव्यापार/ और
कंपनी के पालिसी के तहत
बंधे है उनके हाथ भी
मजबूर हैं वे भी/ कि
भला कैसे रख लें वे/ उन
उजड्ड गंवार और जाहिलों को
उन जगमग वन्य उद्यानों में
आखिर उन्हें भी तो
देना पड़ता है जवाब
अपने आकाओं को
...

पर फ़िर भी
अगर बहुत जिद करेंगे तो
चौकीदारों/ चपरासियों
और मजदूरों की नौकरियों पर
बहाल किया जा सकता है उन्हें
कई विशेष रियायतों
और छूट देने के बाद
पर अयोग्य साबित होने पर
छोड़ना होगा
अपने सारे विशेषाधिकारों का दावा !!!
...
...

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

मुखौटों का संसार

उसकी तरह किसी खास समुदाय से संबंध रखने वालों के लिए लोगों ने उनकी भूमिका पहले से ही तय कर दी है किसी रहस्यमय पूर्वनिर्धारित प्रीप्रोग्रेम्ड कोडिंग के तहत, जिसकी जानकारी इतने अधिक गुप्त संस्तरों में कैद है कि जनसाधारण और जनमानस के अवचेतन में महज किसी धुंधली सी परछाई या फिर अस्पष्ट प्रतिध्वनियों के रूप में मौजूद है पर उसकी मौजूदगी की कोई तर्कसंगत व्याख्या या अवधारणा या प्रमाण दूर दूर तक ढूंढने से भी नजर नहीं आती और न ही इसकी कोई संभावना ही नजर आती है.

उन दोनों दुनियाओं के बीच खिंची अदृश्य सीमारेखा एक दूसरे को अपनी अपनी सीमारेखा का अतिक्रमण या उल्लंघन करने से रोकती है. सीमारेखा के उस पार पर मौजूद प्रहरी/लोग इस बात का खास ख्याल रखते हैं कि इन सबमें किसी प्रकार की कोई चूक या ढिलाई न होने पाए. सीमा के दूसरे पार के लोग अंदर खुदे खंदकों में बैठकर दूसरे के प्रति मेलप्रेम भाईचारा सहयोग जैसे सुंदर मीठे मधुर राग अलापते तो हैं, पर जैसे ही कोई उन सुमधुर धुनों के जादुई मोहपाश में बंध उनकी ओर कदम बढ़ाता है वैसे ही उनके खंदकों के अंदर कोई अदृश्य खतरे की घंटी तेजी से घनघनाने लगती है और थोड़ी ही देर में गोला बारी शुरू हो जाती है ताकि भूले से भी कोई उस सीमा रेखा के पार जाने का दुस्साहस न करे.

पर सीमा रेखा के इस पार रहने वाले (भोले भाले लोग, प्रकृति की गोद में बंधनहीन स्वछंद रूप से जीने वाले लोग) मजबूर बेबस लाचार लोगों का हुजूम झूठ छल प्रंपच की भाषा से अनभिज्ञ सहज ही दूसरी ओर वाले लोगों के बिछाए जाल में फ़ंस जाता है और उनके साजिशों और कुचक्रों का शिकार बन लांछित अपमानित होने के अलावा अपने इस कृत्य या दुष्कृत्य के लिए दंडित भी होता है. बदले में वो इस अन्यायपूर्ण व्यवहार के प्रतिकार या प्रतिरोध में न तो कोई आवाज ही उठा सकता है और न ही इसके खिलाफ़ कहीं पर जाकर फ़रियाद ही कर सकता है क्योंकि न्याय और दंड विधान संबंधी सभी अधिकारों पर दूसरे पक्ष का सर्वाधिकार सह्स्त्राब्दियों से सुरक्षित है. जिसे आसानी से चुनौती नहीं दी जा सकती.

पर बदलते वक्त के साथ दूसरे पक्ष को भी अपना बाह्य स्वरूप बदलना पड़ रहा है नहीं तो पुरातनपंथी पोगापंथी दकियानूसी और प्रतिक्रियावादी समझे जाने का खतरा मंडराने लगता है जिससे उनकी छवि को गहरा धक्का लग सकता है और काफ़ी क्षति भी पहुंच सकती है. इस के अलावा उनका अस्तित्व भी संदेहों के घेरों में घिर सकता है. ये छवि आज के अत्याधुनिक युग में पिछड़ेपन की निशानी साबित हो सकती है, सो इस से जितनी जल्दी पिंड छुड़ाया जा सके उतना ही अच्छा है. सो अपने अंतर्मन में आत्मग्लानि आत्मदया सरीखे बोधों को दबाए अपनी सड़ी गली मानसिकता पर प्रगतिशील मानवतावादी उदारवादी जैसे मुलम्मे चढ़ा लेते हैं ताकि उनकी वास्तविकता से कोई परिचित न होने सके.

तभी तो ये लोग वैयक्तिक रूप से दूसरे लोगों से तब तक जुड़े रहते है जब तक उनकी तरफ़ से कोई खतरा महसूस नहीं करते. उस वक्त वे उन लोगों के प्रति अपने सब से अच्छे व्यवहार का प्रदर्शन करते हैं ताकि कोई उनकी असलियत भांपकर उन का भंडाफ़ोड़ न कर बैठे. वे उन के सबसे बड़े हितैषी और शुभचिंतक होने का दावा करते है, और हर बात पर उन के साथ होने का दंभ भरते हैं और बात बात पर अपने बड़प्पन का प्रदर्शन करते हैं.

पर उनके दावों की पोल उसी वक्त खुल जाती है जब दूसरा अपनी पूर्वनिर्धारित भूमिका और रोल के परे जाकर अपनी पहचान या सत्ता स्थापित करने का प्रयास करता है. तब वे समवेत एक ही सुर अलापने लगते हैं और ऐन प्रकारेण उसी को हर बात के लिए दोषी और जिम्मेवार ठहराकर सजा का प्रावधान जारी करवाते हैं कि किस तरह समाज में ऐसे लोगों को अपमानित और दंडित करके उन की आने वाली पीढ़ियों तक को सबक दिया जाए ताकि भविष्य में कोई भी उनके सामने सिर उठाने या मुंह खोलने की जुर्रत न कर सके.

ऐसे लोगों के गहरी दोस्ती के दावों की पोलपट्टी उसी वक्त खुल जाती है जब वे दूसरों की परेशानियों में उनके साथ खड़े न होकर अन्यों की तरह दूर ही से उपदेश झाड़कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते है और अपनी महानता के खोल में जाकर वापस छुप जाते हैं. डूबते हुए व्यक्ति को दूर दूर से मदद करने का आश्वासन तो देते है पर नदी में खुद कूदकर अपनी जान जोखिम में नहीं डालना चाहते और उसे अपनी ही आंखों के सामने मौत का ग्रास बनते देखते रहते हैं भर. बाद में शोक संवेदना की झड़ी लगाकर अपने विशाल ह्रदय संवेदनशील समझदार होने के ढोंग में सम्मिलित होते हैं क्योंकि खतरा तब तक सचमुच में टल चुका होता है.

क्रमश:

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज १७



जंगल चीता बन लौटेगा

जंगल आखिर कब तक खामोश रहेगा
कब तक अपनी पीड़ा के आग में
झुलसते हुए भी
अपने बेबस आंसुओं से
हरियाली का स्वप्न सींचेगा
और अपने अंतस में बसे हुए
नन्हे से स्वर्ग में मगन रहेगा
....

पर जंगल के आंसू इस बार
व्यर्थ न बहेंगे
जंगल का दर्द अब
आग का दरिया बन फ़ूटेगा
और चैन की नींद सोने वालों पर
कहर बन टूटेगा
उसके आंसुओं की बाढ़
खदकती लावा बन जाएगी
और जहां लहराती थी हरियाली
वहां बयांवान बंजर नजर आएंगे
....

जंगल जो कि
एक खूबसूरत ख्वाब था हरियाली का
एक दिन किसी डरावने दु:स्वपन सा
रूप धरे लौटेगा
बरसों मिमियाता घिघियाता रहा है जंगल
एक दिन चीता बन लौटेगा
....

और बरसों के विलाप के बाद
गूंजेगी जंगल में फ़िर से
कोई नई मधुर मीठी तान
जो खींच लाएगी फ़िर से
जंगल के बाशिंदो को उस स्वर्ग से पनाहगाह में
........
........

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज १६

टिड्डियों सा दल बांधे लौटेंगे वे...

जिंदगी भर रेंग घिसट कर
कीड़े मकौड़ौं सा जीवन जिया
हर किसी के पैरों के तले
रौंदे जाने के बावजूद
हर बार तेज आंधियों में
सिर उठाने की हिमाकत की
और समय के तेज प्रवाह के खिलाफ़
स्थिर खड़े रहने की मूर्खता (जुर्रत) की
और जीवन की टेढ़ी मेढ़ी
उबड़ खाबड़ पगडंडियो पर
रखते रहे/ राह में पड़े
कंकड़ और कांटो से घायल
अपने थके हारे/ लहुलुहान कदम
और सतह पर बने रहने के संघर्ष में
बुरी तरह से घायल/क्षत विक्षत
आत्मा के घाव रूपी हलाहल को
अमृ्त और आशीष मान
जीवन भर चुपचाप पिया
तो क्या व्यर्थ जीवन जिया
...

अंधी गलियों के बंद मोड़ों पर
क्या व्यर्थ ही अपना सिर फ़ोड़ा
कि दीवारों में छुपे बंद दरवाजे
खुल जाए हरेक के लिए
न कि हो चंद लोगों का कब्जा
उन चोर दरवाजों के मकड़जाल पर
जिनका सर्वाधिकार सर्वथा सुरक्षित
उनकी आगामी अनगिन पीढ़ियों के लिए
और सेंधमारी में सिद्धहस्त
कायर चापलूसों और चाटुकारों का
लालची हुजुम
चोर दरवाजों की फ़ांको और छेदों से
झलकते जगमग संसार की चमक से चौंधियाकर
अपने आकाओं के नक्शेकदमों पर चलते हुए
दूसरो को रौंदकर और कुचलते हुए
आगे बढ़ने में जिन लोगों को
कभी भी न रहा कोई गुरेज
और नहीं कोई भी परहेज
और अपने तथाकथित
आदर्श और संस्कारों के
ढकोसलों को
अपने हाथों की तलवार और
तीरों की नोक बना
छलनी करता रहा
आस पास मंडराती भीड़ की
देह प्राण आत्मा तक को
जिन्होंने भी की हिमाकत
चुनौती बनने की
उनके विश्व विजय के
संकल्प की धज्जियां उड़ाने की
...

बढ़ता रहा बेखौफ़ और बेरोकटोक
उनका हुजूम
विलासितापूर्ण समृद्धि के
जगमग राजपथ पर
गर्व से गर्दन अकड़ाए
अपनी तथाकथित
बमुश्किल मिली उपलब्धियों पर
किसी गैस भरे गुब्बारे सा फ़ूला हुआ
हवा के झौंको के साथ साथ
जहां तहां उड़ते लहराते
...

टिड्डियों सा दल बांधे लौटेंगे वे
और तहस नहस कर देंगे
समृद्धि के राजमार्ग की
हर चमक दमक को
दीमक बन खोखला कर देंगे
चोर दरवाजों के मकड़जाल के
बदौलत बने हर इमारत की नींव
...

कीड़े मकौड़ौं सा
अब नहीं रौंदे जाएंगे वे
किसी भी ऐरे गैरों के बूट तले
रेंगना घिसटना छोड़
अब वे उड़ेंगे मुक्त आकाशों में
और दौड़ेंगे वे हिरण सदृश
जीवन की जंगली पगडंडियो पर
...

चोर दरवाजों के मकड़जाल को
हर तरफ़ से काट चीर कर
आंखे नोच लेंगे वे
बेनकाब कर उन पांखडी रहनुमाओं की
जिन्हें बलि देते रहे वे
अपने बहुमूल्य जीवन को कौड़ियों सा
...
...

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज १५

अंधेरों का गीत

मूक बांसुरी गाती है
मन ही मन
अंधेरों के गीत
मूक बांसुरी में बसता है
सोई हुई उम्मीदों
और खोए हुए सपनों का
भुतहा संगीत
देखती है मूक बांसुरी भी
सपने, घने अंधेरे जंगल में
रोशनी की झमझम बारिश का
मूक बांसुरी में कैद है
अंधेरे का अन्सुना संगीत
.....

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज १४

अंधेरी दुनिया

हमारे हिस्से का उजाला
न जाने कहां खो गया
कि आज भी मयस्सर नहीं
हमें कतरा भर भी आसमां
जिंदगी जूठन और उतरन
के सिवा कुछ भी नहीं
चेहरे पर अपमान और लांछन
की चादर लपेट
भटकते हैं रोज ही
जिंदगी की गलियों में
आवारा कुत्तों और
भिखारियों की तरह
...

औरो के दुख है बहुत बड़े
और हमारे दुख हैं बौने
तभी तो हथिया ली है
सबने ये पूरी दुनिया
जबकि हम जैसों को
नहीं मयस्सर जरा सा एक कोना
..

दुख और गरीबी
जिनके लिए हैं
महज लफ़्फ़ाजी या बयानबाजी
..


सो अपने अनझरे आंसू समेटे
हंसते गाते है सबके लिए
खुजैले कुत्ते सा
बार बार दुरदुराए जाने के बावजूद
फ़िर फ़िर लौटते हैं
नारकीय अंधकूपों में
ताकि अंधी सुरंग से ढके दिन रात में
कर सके नन्हा सा छेद
कि मिल सके
जरा सी हवा
जरा सा आसमान
हमारे बच्चों के बच्चों को भी
...
...

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज १३

परिवर्तन का काफ़िला

२.

कभी गुजर जाता है
बेहद तीव्र गति से
सब कुछ को रौंदता हुआ
तो कभी गुजर जाता है
बड़ी ही खामोशी से
कि उसका अहसास भी
हो पाता है
अरसा बीतने पर
उसके आने की उम्मीद में
लोग रहते है
पलकें बिछाए
दुआओं की चादर फ़ैलाए
तो कुछ रहते हैं तैयार
उसका रास्ता रोकने
डंडा गाली और गोली का
बदोबस्त किए
...
...

३.


जब उम्मीदें तोड़ देती है दम
बीच राह में...
एक नया सफ़र
फ़िर आरंभ होता है
उस बिंदु से
उससे पार जाने के
जद्दोजहद और कशमकश के मध्य
सब कुछ चलता है से हटकर
सब कुछ को बदलना है
के मुकाम तक का सफ़र
अंजान और अकेला ही सही
पर धूल का गुबार के
छंटने के बाद
भीड़ के तितर बितर होने के बाद
बचे खुचे लोगों का हूजूम
बांधेगा ढे्र सारे पुल
उन खाईयों और गर्तों के
मुहानों पर
जिनके मायाजाल में फ़ंसकर
उलझ/ बिखर जाता है सफ़र और
लोगों का उत्साह और जूनून
...
...


-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज १२

१.

लुकस टेटे की स्मृति में


हम जैसों का तो
जन्म ही हुआ है
यूं ही मर खप जाने को
गुमनामी में जीने
और गुमनामी में
मर जाने को
...

हमारे परिवार/कुनबे
या समाज का विलाप
और दुख
टसुवे बहाती आंखों का
दोष मात्र
जिसे झिड़का
अनदेखा किया जा सकता है
हर बार
...

दूसरे के आंसू का
एक एक कतरा भी
पिघला सकता है
देश भर का दिल
पर
हमारे आंसुओं का
सैलाब भी
कम पड़ जाता है
असर दिखा पाने में
बुरी तरह से नाकामयाब
...

आंसू आंसू के फ़र्क
के भेद को बूझें कि अपने पहाड़ से
जीवन के दुख से जूझें
हमारे लोग
पर फ़िर भी
रहते हैं वे
शांत अविचलित और अडिग
किसी पहाड़ सा
अपनी उजड़ी बिखरती
जिंदगियों मे भी
मगन और मस्त
सब कुछ को भुलाकर
...

सोचते थे कि
दुख तो होता है
सबका एक जैसा
क्या जानते थे कि
बौने और कीड़े मकौड़े
समझे जाते हैं
हम जैसे लोग
गुलीवरों के देश में
जिनका कुचला
मसले जाना
रोजमर्रा की है बात
नहीं मचती कोई
चीख पुकार
या हलचल
किसी भी बा्र
ऐसी छोटी मोटी
बातों पर
हमारे दर्द के गुबार से
लदा कारवां
गुजरता है रोज ही
दुनिया के बाजार से
किसी मूक परछाई के
अंतहीन सिलसिले सा
सदियों से
अनदेखा अनसुना और अकेला


...
...


२.

कहां हो तुम...रानी मिंज...


कहां हो तुम
रानी मिंज
मेरी बच्ची
और तुम सी
ढेरों बच्चियां
अपनी मासूम
आंखो से
आसमान को नापने वाली
पैरों से धरती को
जानने वाली
अपनी भोली मुस्कान से
दुनिया को जगमगाने वाली
...

कौन आदमखोर तेंदुवा
या अलसाता मगरमच्छ
या फ़िर कोई रंगा सियार
तुम्हें अपना शिकार
बना गया
तुम्हारे मां बाबा के जीवनों में
हमेशा के लिए
अंधेरा घोल गया
उनके
टूटे फ़ूटे गीतों के
बोल तक पी गया
उनके दारूण दुख में
उपहास का जहर
उंडेल गया
कौन था वो
कौन है वो
अनाम आदमखोर
जो मेरी बच्चियों
तुम्हें जीते जी
निगल गया
इतने सारे
लोगों के रहते


...
...
(अखबारों में गुमशुदा इश्तिहार पढ़ने के बाद... महानगरों की भीड़ में खो जाने वाली हमारी

अनाम बच्चियों के नाम)

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज ११




जंगल गाथा

१.

जंगलों के जो राजा थे कभी
भालू शेर और हाथी
वे जंगल से निकलते ही
चांदी के सिक्कों की
झंकार में खो गए
चंद सिक्कों के मोल में
गदहों घोड़ों सा तुल गए
गर सिर उठाकर
जीना भी चाहा जो कभी
तो चांदी के चमचमाते हुए
जूतों से पिट गए
उन्हें बेहोश और अधमरा मान
सियार और गिद्ध भी
उन्हें नोच खाने को पिल पड़े
और आस पास से गुजरते हुई
तमाशबीनों का हुजूम
यूं ही बेवजह भीड़ सा
उनके चारों ओर जुट गई
उन भालू शेर और हाथी के किस्सों को
महज कोई मिथक मान
बाकी लोग भी
बड़ी सहजता से भूल गए
...
उनके वंशज आज भी
राह तकते उनकी/जो
ले जाए गए थे
बंधुवाई में जबरन
जाने कौन से ऋण के एवज
परदेश में मनबहलाव खातिर
...
...

२.

जैसे जंगल में
आजाद घूमते
किसी दुर्लभ जानवर को
शहर ला के
पिंजरे मे
कैद कर लेना
....
जहां रोज
तिल तिल कर जीना
अपमान और तिरस्कार
की खुराक पर
जीवन भर पलना
....
और लोगों की
फ़रमाईश पर
ना चाहते हुए भी
खेल तमाशे दिखाना
....
....

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज १०

परिवर्तन का काफ़िला

आंधी झंझावात से जूझते
बदबूदार काई और कीचड़ के
असंख्य अंधेरे
नारकीय गलियारों भरे
गुफ़ाओं से गुजरकर
आगे बढ़ता है
परिवर्तन का काफ़िला
चुनौतियों के टेढ़े-मेढ़े
ऊंचे नीचे रास्तों
और संकरे डगर पर
अपने नए प्रतिमानों की
ध्वजा फ़हराते
नए-नए धारदार
और पैने हथियारों से लैस
कि सामना कर सके
बेखौफ़/बेखटके
रास्ते में अपने विरूद्ध
नजर आने वाले
सभी अवरोध
विरोध और गतिरोध का
उनका हौसला
इस बार तो
आंधी के थपेड़ों से भी
चुकता नही
चोटियों से गिरने पर भी
टूटता नहीं
........
........


-उज्जवला ज्योति तिग्गा-