१.
लुकस टेटे की स्मृति में
हम जैसों का तो
जन्म ही हुआ है
यूं ही मर खप जाने को
गुमनामी में जीने
और गुमनामी में
मर जाने को
...
हमारे परिवार/कुनबे
या समाज का विलाप
और दुख
टसुवे बहाती आंखों का
दोष मात्र
जिसे झिड़का
अनदेखा किया जा सकता है
हर बार
...
दूसरे के आंसू का
एक एक कतरा भी
पिघला सकता है
देश भर का दिल
पर
हमारे आंसुओं का
सैलाब भी
कम पड़ जाता है
असर दिखा पाने में
बुरी तरह से नाकामयाब
...
आंसू आंसू के फ़र्क
के भेद को बूझें कि अपने पहाड़ से
जीवन के दुख से जूझें
हमारे लोग
पर फ़िर भी
रहते हैं वे
शांत अविचलित और अडिग
किसी पहाड़ सा
अपनी उजड़ी बिखरती
जिंदगियों मे भी
मगन और मस्त
सब कुछ को भुलाकर
...
सोचते थे कि
दुख तो होता है
सबका एक जैसा
क्या जानते थे कि
बौने और कीड़े मकौड़े
समझे जाते हैं
हम जैसे लोग
गुलीवरों के देश में
जिनका कुचला
मसले जाना
रोजमर्रा की है बात
नहीं मचती कोई
चीख पुकार
या हलचल
किसी भी बा्र
ऐसी छोटी मोटी
बातों पर
हमारे दर्द के गुबार से
लदा कारवां
गुजरता है रोज ही
दुनिया के बाजार से
किसी मूक परछाई के
अंतहीन सिलसिले सा
सदियों से
अनदेखा अनसुना और अकेला
...
...
२.
कहां हो तुम...रानी मिंज...
कहां हो तुम
रानी मिंज
मेरी बच्ची
और तुम सी
ढेरों बच्चियां
अपनी मासूम
आंखो से
आसमान को नापने वाली
पैरों से धरती को
जानने वाली
अपनी भोली मुस्कान से
दुनिया को जगमगाने वाली
...
कौन आदमखोर तेंदुवा
या अलसाता मगरमच्छ
या फ़िर कोई रंगा सियार
तुम्हें अपना शिकार
बना गया
तुम्हारे मां बाबा के जीवनों में
हमेशा के लिए
अंधेरा घोल गया
उनके
टूटे फ़ूटे गीतों के
बोल तक पी गया
उनके दारूण दुख में
उपहास का जहर
उंडेल गया
कौन था वो
कौन है वो
अनाम आदमखोर
जो मेरी बच्चियों
तुम्हें जीते जी
निगल गया
इतने सारे
लोगों के रहते
...
...
(अखबारों में गुमशुदा इश्तिहार पढ़ने के बाद... महानगरों की भीड़ में खो जाने वाली हमारी
अनाम बच्चियों के नाम)
-उज्जवला ज्योति तिग्गा-
लुकस टेटे की स्मृति में
हम जैसों का तो
जन्म ही हुआ है
यूं ही मर खप जाने को
गुमनामी में जीने
और गुमनामी में
मर जाने को
...
हमारे परिवार/कुनबे
या समाज का विलाप
और दुख
टसुवे बहाती आंखों का
दोष मात्र
जिसे झिड़का
अनदेखा किया जा सकता है
हर बार
...
दूसरे के आंसू का
एक एक कतरा भी
पिघला सकता है
देश भर का दिल
पर
हमारे आंसुओं का
सैलाब भी
कम पड़ जाता है
असर दिखा पाने में
बुरी तरह से नाकामयाब
...
आंसू आंसू के फ़र्क
के भेद को बूझें कि अपने पहाड़ से
जीवन के दुख से जूझें
हमारे लोग
पर फ़िर भी
रहते हैं वे
शांत अविचलित और अडिग
किसी पहाड़ सा
अपनी उजड़ी बिखरती
जिंदगियों मे भी
मगन और मस्त
सब कुछ को भुलाकर
...
सोचते थे कि
दुख तो होता है
सबका एक जैसा
क्या जानते थे कि
बौने और कीड़े मकौड़े
समझे जाते हैं
हम जैसे लोग
गुलीवरों के देश में
जिनका कुचला
मसले जाना
रोजमर्रा की है बात
नहीं मचती कोई
चीख पुकार
या हलचल
किसी भी बा्र
ऐसी छोटी मोटी
बातों पर
हमारे दर्द के गुबार से
लदा कारवां
गुजरता है रोज ही
दुनिया के बाजार से
किसी मूक परछाई के
अंतहीन सिलसिले सा
सदियों से
अनदेखा अनसुना और अकेला
...
...
२.
कहां हो तुम...रानी मिंज...
कहां हो तुम
रानी मिंज
मेरी बच्ची
और तुम सी
ढेरों बच्चियां
अपनी मासूम
आंखो से
आसमान को नापने वाली
पैरों से धरती को
जानने वाली
अपनी भोली मुस्कान से
दुनिया को जगमगाने वाली
...
कौन आदमखोर तेंदुवा
या अलसाता मगरमच्छ
या फ़िर कोई रंगा सियार
तुम्हें अपना शिकार
बना गया
तुम्हारे मां बाबा के जीवनों में
हमेशा के लिए
अंधेरा घोल गया
उनके
टूटे फ़ूटे गीतों के
बोल तक पी गया
उनके दारूण दुख में
उपहास का जहर
उंडेल गया
कौन था वो
कौन है वो
अनाम आदमखोर
जो मेरी बच्चियों
तुम्हें जीते जी
निगल गया
इतने सारे
लोगों के रहते
...
...
(अखबारों में गुमशुदा इश्तिहार पढ़ने के बाद... महानगरों की भीड़ में खो जाने वाली हमारी
अनाम बच्चियों के नाम)
-उज्जवला ज्योति तिग्गा-
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