आदिम गूंज १४

अंधेरी दुनिया

हमारे हिस्से का उजाला
न जाने कहां खो गया
कि आज भी मयस्सर नहीं
हमें कतरा भर भी आसमां
जिंदगी जूठन और उतरन
के सिवा कुछ भी नहीं
चेहरे पर अपमान और लांछन
की चादर लपेट
भटकते हैं रोज ही
जिंदगी की गलियों में
आवारा कुत्तों और
भिखारियों की तरह
...

औरो के दुख है बहुत बड़े
और हमारे दुख हैं बौने
तभी तो हथिया ली है
सबने ये पूरी दुनिया
जबकि हम जैसों को
नहीं मयस्सर जरा सा एक कोना
..

दुख और गरीबी
जिनके लिए हैं
महज लफ़्फ़ाजी या बयानबाजी
..


सो अपने अनझरे आंसू समेटे
हंसते गाते है सबके लिए
खुजैले कुत्ते सा
बार बार दुरदुराए जाने के बावजूद
फ़िर फ़िर लौटते हैं
नारकीय अंधकूपों में
ताकि अंधी सुरंग से ढके दिन रात में
कर सके नन्हा सा छेद
कि मिल सके
जरा सी हवा
जरा सा आसमान
हमारे बच्चों के बच्चों को भी
...
...

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

1 टिप्पणियाँ:

विनय विनीत ने कहा…

जीवन के नारकीय विेभीषिकाओं के मध्य आदिवासी जीवन मे रची बसी अदम्य जिजीविषा को रेखांकित करती एक गहन संवेदनायुक्त प्रस्तुति...

एक टिप्पणी भेजें