जंगल गाथा
जंगल मौन
बरसों से
अपना अपमान पीड़ा
पी/जी रहे है
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उनका हाहाकार ........
लूट खसोट और अत्याचारों की
दारूण गाथा
विलाप गीत में बदल चुकी है
रूंधे गले और सूखी आखों से
तकते है अपने आतताईयों के चेहरे....
मौन रूदन और आर्तनाद से
गूंजता है समूचा जंगल
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हर आहट पर
ठिठके/ सहमे
गतिहीनता के भंवर में छ्टपटाते
मुक्ति की मूक याचना में लीन
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आकाश की ओर उठाते हैं नयन
षडयंत्रो/ कुचक्रों के विनाश की कामना में
स्वयं में डूब रचते हैं वे
अबूझ जंगल राग
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जिसकी अनुगूंज ब्रह्मांड तक हिला सकती है
अपनी खामोशियों में समेटे हैं वे
अजीब सी एक उदास सिम्फ़नी
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उनका बीहड़ी औघड़ सौंदर्य
चौंधियाता है पर्यटकी आखों को
पल भर के लिए सही
जो जाने/अन्जाने
झौंक देते है निरीह निहत्थे जंगल को
निरर्थक विवादों के चक्रव्यूह में
अपमानित और लहुलुहान होने को
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जो प्रतिशोध/प्रतिघात की ज्वाला में
घिरे होने के बावजूद भी
प्रतिकार मे नहीं उठाता है कदम
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न ही देता है हमें कोई अभिशाप
न ही देता है हमें कोई अभिशाप
वरन लीन रहता है सामर्थ्य भर आशीषें उडेंलने
इस अग्निदीप्त धरा पर
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साकार करता/रचता है हरियाली का स्वप्न !
साकार करता/रचता है हरियाली का स्वप्न !
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-उज्जवला ज्योति तिग्गा-
-उज्जवला ज्योति तिग्गा-
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