आदिम गूंज १७



जंगल चीता बन लौटेगा

जंगल आखिर कब तक खामोश रहेगा
कब तक अपनी पीड़ा के आग में
झुलसते हुए भी
अपने बेबस आंसुओं से
हरियाली का स्वप्न सींचेगा
और अपने अंतस में बसे हुए
नन्हे से स्वर्ग में मगन रहेगा
....

पर जंगल के आंसू इस बार
व्यर्थ न बहेंगे
जंगल का दर्द अब
आग का दरिया बन फ़ूटेगा
और चैन की नींद सोने वालों पर
कहर बन टूटेगा
उसके आंसुओं की बाढ़
खदकती लावा बन जाएगी
और जहां लहराती थी हरियाली
वहां बयांवान बंजर नजर आएंगे
....

जंगल जो कि
एक खूबसूरत ख्वाब था हरियाली का
एक दिन किसी डरावने दु:स्वपन सा
रूप धरे लौटेगा
बरसों मिमियाता घिघियाता रहा है जंगल
एक दिन चीता बन लौटेगा
....

और बरसों के विलाप के बाद
गूंजेगी जंगल में फ़िर से
कोई नई मधुर मीठी तान
जो खींच लाएगी फ़िर से
जंगल के बाशिंदो को उस स्वर्ग से पनाहगाह में
........
........

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

3 टिप्पणियाँ:

Sunder Manoj Hembrom ने कहा…

ना सिर्फ़ शब्दों की खूबसूरती; अपितु एक गहरा अहसास भी ...!!
धन्यवाद, उज्ज्वला जी इस अतुलनीय रचना के लिए !!!

Bharat Bhushan ने कहा…

बहुत सुंदर रचना है जिसमें आक्रोश और सकारात्मकता है. आपकी अनुमति हो तो इसे अपनी एक पोस्ट में प्रयोग करूँ.

Devantak Vicky ने कहा…

बहुत ही खूबसूरत रचना है ।

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